Friday, 16 November 2012

अन्तर्रष्ट्रीय नदी महोत्सव बनाम मणिलाल मांझी के सपनो का एक बार और मर जाना


२१-२२ -२३ मार्च २०१० में देश,विदेश के बड़े बड़े पर्यावरण चिन्तक मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के बांद्राभान नाम के रेतीले तट पर अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव में शिरकत करने पहुंचे,इस रेतीले तट पर आलिशान तम्बू और पाश्चत्य शैली की टट्टिया बनवाई गई क्यूंकि देशी विदेशी सभ्रांत लोग यहाँ पर आने वाले थे जिनके घुटनों ताकत नहीं थी की वो उकडू बैठ कर निस्तार कर सके चलो छोरिये इस बात को ये हमारी नाराजगी का मुद्दा भी नहीं है या यूँ कहे की इसमें देशी शैली की टट्टी की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि नर्बदा के तटीय किनारों में रहने वाले मछुवारे और डंगर बाड़ी लगाने वाले मेहनतकश इस कार्यक्रम का हिस्सा भी नहीं थे , पूरे तट को लकड़ी के टुकडो से पाटा गया कुल मिलाकार काफी पैसा इस आयोजन में फूँका गया,कोई भी कार्यक्रम को चूंकि सफल बनाना ही होता है इसलिए ही भजन गायिका अनुराधा पौडवाल और रेत पर कलाकृति उकेरने वाले कलाकार सुदर्शन पटनायक को भी आमंत्रित किया गया,कुलमिलाकर तीन दिवसीय अनुशासनात्मक मस्ती श्री अनिल माधव दवे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐसे सदस्यों ने की जो अब जन अभियान परिषद् नामक संघ परस्त, या यूँ कहिये कि भा जपा कि समाज सुधार कि दुकान में बड़े पदों पर रहकर खूब पैसा कमा रहे है ख़ैर नदी चूंकि सभी कि है तो हर कोई ये जिम्मेदारी ले ही सकता है चिंता सभी को हो ही सकती है नदी की ।पर मेरी चिंता थोड़ी अलग किस्म की है ( यार बुरा मत मानना में कोई नामी गिरामी शख्स नहीं हूँ एक तरबूज चोर हूँ जो नर्बदा (नर्मदा ) में तैरते तैरते मणि लाल मांझी जैसे किसानो की तरबूज की फसल मैं से एकाध तरबूज चुराकर कर खा जाता था,) पर मेरी चिंता भी तो जायज है आपके लिए न सही मेरे लिए तो है ही कम से कम,चिंता का कारण भी मेरे हिसाब से बाजिव ही है क्यों की मेरे मोहल्ले के लड़के अब मणिलाल मांझी की बाड़ी में से तरबूज चुरा कर नहीं खा पा रहे थे,तो सोचा की मणि लाल मांझी से मिला जाये जरा हाल चल पुछा जाए कुछ गम्मत लगाईं जाए.की तरबूज की खेती (बाड़ी ) के क्या हाल है कितना उग रहा है कंहा कहाँ बेच रहे हैं ,इन्ही सवालो को लेकर चल दिए नर्बदा तट पर मणि लाल मांझी से मिलने . वहा जाकर देखा तो मणि लाल अपने कच्छे में क्यारिओं के बीच में घूमते नजर आये.हमने पुछा की क्या हाल है, कुछ डंगरा कलिंदा (तरबूज खरबूज )तो खिलो दो भैया. मणि भैया ने कहा की रुक जाओ एक महिना अभी फलन वारी है फसल ,फिर खिवाहे,तो हमने पूछा की परकी साल(पिछले साल ) केसी भाई थी फसल ? कहन लगे की कहाँ भई परकी साल हमे ही बाज़ार से मोल लाने पड़े थे खाने काजे.हमारे मन में आया की हुआ क्या है ? थोडा तफसील से पूछा तो कहन लगे जब से जो ठठरी बंधो बाँध बनो हैं तब से तो फसल ही कहाँ बचती है,हमें समझ में नहीं आया की बाँध से फसल का क्या लेना देना और आये भी क्यों समझ हमें, नदी बाँध,महोत्सव इन सबसे लेना देना ही क्या है हमारा,हमें तो मणि लाल के मीठे तरबूज से मतलब था,फिर भी पुछा की क्या होता है बाँध से? कैसे आपकी फसल ख़राब हो जाती है? कहन लगे अरे कछु नहीं जे नासपीटे हर कभी पानी छोर देते हैं जैसे ही पानी का स्तर बढ़ता है पूरी क्यांरिया बह जाती है रोपा गल जाता है,अब परकी साल हमने तीन बार रोपा लगाया और तीनो बार ही गल गया, कर्जा हुआ सो ब्याज में,हमने पुछा की बांध बने तो कई साल हो गए फिर. तो कहने लगे की भईया जब जे बंधान नहीं तो तब तो इतनी उम्दा होती थी खेती की कछु पूछू ही मति चार महिना मेहनत करत थे और आठ महीना खात थे उसमे भी व्याब शादी सब कछु कर देत थे, इत्तो बढ़िया काम थो हमारो भोपाल को ठेकेदार आत थो इते और खड़ी की खड़ी फसल नकद में खरीद लतो थो,कितनी जगह में आप फसल लगाते थे बस जा गर्मी शुरू भई नै की रेता निकली और आधे पात पर डंगरा कलिंदा और सब्झी को काम शुरू हो जात थो,ठेके होत थे बा ज़माने में, तहसील में जाकर लगान जमा करना पडत थो,और हमरे डंगरा कलिंदा भोत दूर दूर तक बिकने जात थे,हम सब भैया वीर और बाई चारी मिलकर मेहनत कर्ट थे और बम्बोलियाँ (नर्मदा के ऊपर बनाये लोक गीत ) गात थे.अब न तो वो गीत बचे और न ही डंगर बाड़ी. ये शायद मणिलाल मांझी के सबसे हसीन दिन के वाकये थे जिन्हें सुनाते हुए उनकी आँखों में चमक साफ़ दिखाई पड़ रही थी. 

(पिछली गर्मियों के दिनों भोपाल में अपनी अम्मा के साथ सब्जी खरीदने हाट गया था तब वहा एक दुकान दार तरबूज बेच रहा था " आन्ध्र प्रदेश के मीठे तरबूज " मैंने पुछा की नर्बदा के तरबूज नहीं आ रहे हैं क्या ? उसने कहा नहीं वो तो काफी समय से नहीं आ रहे है !!)

मैंने मणि लाल से पूछा की जब खेती फायदे की नहीं रही तो फिर क्यों उगाते हो ?

अब इत्ती बड़ी जमीन में हम थोड़ी उगा रहे है भैया .थोड़ी एकन जगह में कोशिश कर लेत है मन नई मान तो. और लगान ?
तो कहने लगे की तहसील से अब कोई आत ही नहीं है बोलने,और आ भी गाओ तो अब काय को लगान,
तो इस बार आप को फसल मिलेगी क्या ??
हाँ जा दान तो पानी थोड़ो एक सो ही है तो उम्मीद तो है!
चलो अब में चलू क्यारिओं में खातोरा (खाद) डालना है !!
अच्छा मणि भैया एक बात तो बताओ की ये बांद्राभान में जो कार्यक्रम होने जा रहा है नदी वाला उसकी कोई खबर है की नहीं ???
कौन सो भैया हमें कछु नयी मालूम ??


 

ये अनोपचारिक बातचीत २० मार्च २०१० को मणि लाल मांझी से हुई और २१ मार्च २०१० को अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव शुरू हुआ जिसमे आये लोगो को नर्मदा नदी में पानी का स्तर दिखने क लिए वापस बाँध से पानी छोड़ा गया और मणि
लाल समेत पता नहीं कितने किसानो की तमाम क्यरिआ पानी में बह गयी .
अनिल माधव जी ये कौन सा तरीका है आपका नदी की संस्कृति बचाने का ?
जिसमे न तो आप मछुवारों को शामिल करते हो,और न ही नर्मदा के किनारों पर रहने वाले नर्मदा को जान ने वाले लोगो को ?
और यदि वो शामिल होना चाहे तो आप १५०० रु मांगोगे !
आपके तमाम मुद्दों में बांध की बात क्यों नहीं होती??
विस्थापन की बात से आप क्यों कन्नी काट लेते हो ?
में आपको याद दिला दूँ की नर्मदा तट पर प्रतिवर्ष नर्मदा जयंती महोत्सव होता है और उसमे भी गाने और नाचने के  लिए कलाकार आते है फिर आप काहे नाहक परेशान होते है?
खैर हमें तो इनके जबाव चाहिए ही है आप न दो तो भी हम ढून्ढ ही लेंगे.
पर दोगे तो आपको भी अच्छा लगेगा और मणि लाल भी थोडा सावधानी से अपनी फसल लगा लेगा.
ताकि उसका कर्जा और न बढे
इसी आशा के साथ मणि लाल का साथी और नर्मदा को माँ नहीं कहने वाला
                                                                                                                     -पल्लव