
दशरथ मांझी कभी गया के आसपास के लोगों के नायक हुआ करते थे, अब बिहार के
सरकारी नायक हैं. पहाड़ काट कर रास्ता बना देने के उनके बेमिसाल कारनामे के
कारण मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनसे काफी प्रभावित थे. उनके गांव के लोग
बताते हैं कि एक बार नीतीश ने उन्हें अपनी कुरसी पर बिठा दिया था और कहा था
कि आज जो चाहे मांग लीजिये. तब भूमिहीन दशरथ मांझी ने शायद उनसे पांच एकड़
जमीन की मांग की थी, जो खुदा-न-खास्ता उनके जीते जी उन्हें सरकार दे नहीं
पायी. हुक्मरानों का यही हाल है, वे अपने आप को दुनिया का मालिक मांगते हैं
और हर चीज का वादा कर बैठते हैं. मगर वादा पूरा करना अफसरों का काम होता
है और अफसर को गांधी जी की सुगंध मिली तो ठीक नहीं तो कानून बघारना शुरू कर
देते हैं. खैर, जमीन नहीं मिली, हालांकि नीतीश कुमार ने उनके नाम पर
महादलित युवक-युवतियों को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिलाने के लिए एक योजना शुरू
कर दी है, दशरथ मांझी कौशल विकास योजना. अब यह तथ्य भी सवालों के घेरे में
है कि इस योजना के तहत कितने महादलित युवक-युवतियों का कौशल विकसित हुआ
है, मगर दशरथ मांझी को सरकारी नायक बना देने से नीतीश अपनी पार्टी को जो
राजनीतिक लाभ दिलाना चाहते हैं उसमें कुछ संभावना जरूर बनती है... खैर,
मीडिया हस्तक्षेप के एक आयोजन के दौरान कई नये-पुराने साथियों के साथ दशरथ
मांझी के गांव जाने और देखने का मौका मिला. वहां कई भ्रम टूटे...
सबसे पहले हमारी टोली गेहलौर के उस स्थान पर पहुंची जहां दशरथ
मांझी ने अपने 22 साल के पागलपन(लोग उस वक्त यही कहते थे) की वजह पहाड़ को
काट कर वजीरगंज और अतरी प्रखंड के बीच की 75 किमी की दूरी को घटाकर एक किमी
कर दिया था. उस रास्ते पर सड़क बन चुकी थी और बगल में एक स्मारक भी. हमलोग
दो गाड़ियों से थे, तकरीबन 25-30 लोग... हमारे पास दसेक कैमरे रहे होंगे,
बांकी मोबाइल वाले कैमरे... जब इतने कैमरे एक साथ क्लिक-क्लिक का शोर मचाने
लगे तो जाहिर सी बात है, आसपास के लोगों ने समझ लिया कि ये साधूजी(दशरथ
मांझी) का कमाल देखने आये हैं. एक बुलंद आवाज वाली संभवतः मछुआरन(मछुआरनों
के सशक्तिकरण का मैं बचपन से कायल रहा हूं) की आवाज अचानक गूंजने लगी, लोग
बाग उसके चारो-ओर जमा हो गये. मैं दूर-दूर से ही उनका आख्यान सुनने लगा.
... साधू बाबा के मेहरारू का गगरी फंस के गिर गया तो उसी दिन ठान लिये कि
पहाड़ को उख्खाड़ के फेंकिये देना है... मगर महिला दो दर्जन पत्रकारों के
सवालों की बौछार में गड़बड़ाने लगीं. बाद में पता चला कि माताजी इस गांव की
नहीं हैं, उन्हें तकरीबन उतनी ही जानकारी है जितनी हमें... आसपास के लोगों
ने उनके अधजल गगरी छलक जाये वाले आचरण पर बकायदा मगही में उन्हें दोदना भी
शुरू कर दिया... रहती हैं पटना में और कहती हैं गेहलौर की बात...
जाइये-जाइये.
खैर हम लोग आगे बढ़ गये... दशरथ मांझी के गांव दशरथ नगर की तरफ. गेहलौर
पंचायत है और दशरथ नगर गांव. दोनों के बीच सवा किमी का फासला है. दशरथ नगर
नाम से कंफ्युजियाइयेगा नहीं. यह नाम सरकारी नहीं है... दशरथ नगर नाम गांव
समाज के लोगों ने दिया था. पहाड़ काट देने के बाद दशरथ मांझी अपने इलाके के
लिए कोई साधारण हस्ती नहीं रह गये थे. लिहाजा जहां बसे उस जगह का नाम
लोगों ने दशरथ नगर रख दिया.
यहां आज भी तकरीबन 50 मुशहर(सरकारी भाषा में महादलित) परिवार
रहते हैं, सभी दशरथ मांझी के सगे-संबंधी ही हैं. उनका इकलौता बेटा भागीरथ
पांव जल जाने के कारण जो बचपन से चलने फिरने में संघर्ष करता है(विकलांग
शब्द का ठीक विकल्प है न, अब लोग नाराज तो नहीं होंगे) सपरिवार रहता है.
पत्नी, बेटी-दामाद और नाती-नातिन.... साधू बाबा अब नहीं रहे. गांव बिल्कुल
वैसा ही है जैसी बिहार की कोई और मुशहर बस्ती हो सकती है. साधू बाबा के
सरकारी नायक बन जाने के बावजूद इसकी सूरत नहीं बदली है, हालांकि लालू सरकार
के टाइम से ही इस गांव के चेहरे पर सरकारी योजनाओं का पावडर लगाने की
कोशिश चलती रही है. लालूजी के समय गांव में 35 इंदिरा आवास बंटे, मगर इनमें
से अधिकतर आवास पड़ोसी जिला नालंदा के बौद्ध खंडहरों जैसे नजर आते हैं.
अधिकांश मकान खाली पड़े हैं और लोग वहां कपड़े सुखाते हैं या पुआल रखते
हैं, रहने का काम फूस की झोपड़ियों में करते हैं. दो हैंडपंप लगवा दिये गये
हैं, मगर दोनों बिगड़ गये हैं लिहाजा लोग एक गंदे कुएं(तसवीर चस्पा है,
देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं) का पानी पीते हैं. पहाड़ तोड़ कर रास्ता बना
देने वाले इंसान के गांव में किसी को हैंडपंप सुधारना नहीं आता, अगर दशरथ
मांझी कौशल विकास योजना के तहत इस गांव के दो युवकों को हैंडपंप सुधारना ही
सिखा दिया जाता तो उस योजना की भी एक उपलब्धि होती. एक एनजीओ ने गांव में
चार शौचालय भी बनवाये थे(तसवीर लगी है, देख कर सब समझा जा सकता है) मगर कोई
उसके पैन में बने छेद में निशानेबाजी करने के लिए तैयार नहीं हुआ. लिहाजा
महिला और पुरुष आज भी समभाव से खेतों को उर्वरक उपलब्ध करा रहे हैं. इन्हीं
हालात में गांव के लोग यह बहुमूल्य जानकारी भी दे रहे थे कि साधू बाबा को
साफ-सफाई से बहुत प्रेम था, इसी वजह से 25-30 साल पहले वे अपने चचेरे
भाइयों को गेहलौर गांव में छोड़कर यहां आ बसे थे. इसी संदर्भ में यह सूचना
भी दी गयी कि वे अंधविश्वास और नशाखोरी के खिलाफ भी थे.

अच्छा हुआ साधू बाबा गुजर गये, नहीं तो गांव का यह हाल देखते तो वापस
गेहलौर लौट जाते. हो सकता है, उन्होंने अपने जीते-जी यह सब देख भी लिया
हो...
गांव के लोग साधू बाबा की याद में बहुत कुछ करना चाहते हैं.
उन्हें याद है कि साधू बाबा चाहते थे कि गेहलौर प्रखंड बन जाये, अब लोग
उनके इस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. गेहलौर में साधू बाबा
के नाम पर जो स्मारक बना है, वहां का पुजारी भागीरथ मांझी(बाबा के पुत्र)
को बनाने की पूरी तैयारी है, कहते हैं, बेचारा चल फिर नहीं पाता है, मेहनत
मजूरी कैसे करेगा. सरकार अगर वादा पूरा करते हुए पांच एकड़ जमीन दे देती तो
इसका थोड़ा भला हो जाता. मगर कोई बात नहीं समाधि स्थल पर बैठेगा तो कुछ न
कुछ चढ़ावा मिल ही जायेगा.
सरकार के खिलाफ लोगों में जबरदस्त गुस्सा है, गनीमत है कि
रामविलास पासवान जी को यह सूचना नहीं मिली है. मुख्यमंत्री महोदय को तो
सूचना मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता, वे आजकल कान में ठेपी लगाकर राज करते
हैं. खैर, यहां लोग चप्पल नहीं चलायेंगे इस बात की पूरी गारंटी है.
(इस संबंध में एक खबर पंचायतनामा में भी प्रकाशित हुई है)