Tuesday, 30 October 2012

‘वरुण के बेटे’ : मछुआरों की जिन्दगी में झाँकता उपन्यास


‘वरुण के बेटे’ : मछुआरों की जिन्दगी में झाँकता नागार्जुन का राजनीतिक उपन्यास

सुविख्यात प्रगतिशील कवि-कथाकार नागार्जुन का यह बहुचर्चित उपन्यास बड़े-बड़े गढ़ों-पोखरों पर निर्भर मछुआरों की कठिन जीवन-स्थितियों को अनेकानेक उन्तरंग विवरणों सहित उकेरता है। लगता है, लेखक बरसों उन्हीं के बीच रहा है-वह उनकी तमाम अच्छाइयों-बुराइयों से गहरे परिचित है और उनके स्वभाव-अभाव को भी भली-भाँति पहचानता है। तभी तो वह खुरखुन और उसके परिवार को केन्द्र में रखते हुए भी मछुंआरा बस्ती मलाही-गोंढियारी के कितने ही स्त्री-पुरुषों को हमारे अनुभव का स्थायी हिस्सा बना देता है। फिर चाहे वह पोखरों पर काबिज शोषक शक्तियों के विरुद्ध खुरखुन की अगुवाई में चलनेवाला संघर्ष हो अथवा मधुरी-मंगल के बीच मछलियों-सा तैरता और महकता प्यार। अजूबा नहीं कि कहीं हम स्वयं को खुरखुन की स्थिति में पाते हैं तो कहीं मधुरी-मंगल की दशा में।

 वरुण के बेटे’(1957), मे समाजवादी चेतना को मछुआ संघ के द्वारा प्रस्‍तुत किया है, जिसमे शिथिल कथावस्‍तु, पत्रात्‍मक चरित्र और उद्देश्‍य में नारेबाजी स्‍पष्‍ट प्रतिध्‍वनित होती है । लोग नारे लगाते है --इन्‍कलाब जिन्‍दाबाद। । मछुआ संघ जिन्‍दाबाद, हक की लडाई जीतेंगे । गढ पोखर हमारा है, हमारा है । बाबा बटेश्‍वरनाथ की समीक्षा करते हुए एक आलोचक ने जो बात बाबा नटेसरनाथ के बारे मे प्रकट की है वह वरुण के बेटे के बारे मे ठीक उतरती है ।

'वरुण के बेटे' हिंदी और मैथिल के जाने माने कवि  व उपन्यासकार नागार्जुन का एक लघु उपन्यास है। नागार्जुन ने इस उपन्यास के माध्यम से मछुआरों की जीवन शैली, उनके रहन सहन और उनके उन सरोकारों की ओर झाँकने का प्रयास किया है जिनसे उनकी रोज़ी रोटी की बुनियाद जुड़ी है।



नागार्जुन की कथ्य शैली निश्चय ही इस उपन्यास को एक आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में ला खड़ा करती है। जिस विस्तार से मछुआरों के जीवन की हर छोटी बड़ी बात को लेखक उपन्यास में समाहित करते चलते हैं ये लघु उपन्यास  इसी इलाके में अवस्थित एक जलाशय गढ़-पोखर और उससे जुड़े लोगों की कहानी कहता है।
'वरुण के बेटे' की पूरी कथा एक छोटे मछुआरे खुरखुन और उसके परिवार के इर्द गिर्द घूमती है। मछुओं में छोटे और बड़े मछुआरों में वही भेद है जो खेती करने वाले एक भूमिहीन और जमीन वाले किसान के बीच होता है।

वैसे तो एक ज़माने मे गाँवों के बीच के ये गढ़ैया तलाब जमींदारों की निजी मिल्क़ियत का हिस्सा होते थे। पर आज़ादी के बाद नए कानूनों के आ जाने से जब इन पर भू स्वामियों का अधिकार खत्म होने को आया तो औने पौने में उन्होंने इन जलाशयों में मछली पकड़ने की बंदोबस्ती गैरकानूनी रूप से इलाके के दबंगों को सौंप दी। 'वरुण के बेटे' में बाबा ने इस बदलते परिवेश में उन मछुआरों की कहानी कहनी चाही है जिन्होंने सामूहिक रूप से एक जुट होकर अपने पर होते अन्याय के खिलाफ़ कमर कसी और अपने उद्देश्य में बहुत हद तक सफल भी हुए।

 इस उपन्यास में खुरखुन की बिटिया मधुरी का प्रेम प्रसंग भी है। पर ये प्रेम उपन्यास की मुख्यधारा में नहीं है। मधुरी प्रेम तो करती है पर समाज के क़ायदे कानून के भीतर। इसलिए ना तो वो अपने प्रेमी के, ना ही ख़ुद के परिणय सूत्र में बँधने के पहले कोई ऐतराज जताती है। सच तो ये  है कि उपन्यास के किरदारों में व्यक्तिगत सुख की आकांक्षा से ज्यादा अपने समाज का कल्याण सर्वोपरि है। यही वज़ह है कि ससुराल से पिट पिटाकर मधुरी जब मछुआरों के संगठन में काम करने की इच्छा जताती है तो उसके पिता ना केवल उसे इसकी इज़ाज़त देता है बल्कि बेटी को इस रूप में देखकर वो फक़्र महसूस करता है।

आंचलिक उपन्यासों की एक खासियत होती है कि वो आपको उस अंचल के लोकगीतों से परिचय कराते चलते हैं। मछुआरों के जीवन में तो लोक संगीत वैसे भी पानी में उछलती मछलियों की तरह ही कुलाँचे मारता फिरता है।

या फिर मछुआरों के महाजाल को निकालते समय मछुआरों का सामूहिक गीत

ऊपर टान, हुइ यो ! बाँए दबके, हुइ यो !
झाड़मझाड़, हुइ यो ! पीछे हटके, हुइ यो !
झट झटक, हुइ यो ! , पैर पटक, हुइ यो !
साबित ख्याल, हुइ यो ! , जाल सँभाल, हुइ यो !
रेहू ब्वारी, हुइ यो ! , मोदनी भुन्ना, हुइ यो !
नैनी भाकुर, हुइ यो ! , उजला सोना, हुइ यो !
लाल चाँदी, हुइ यो ! , गंगा मइया, हुइ यो !
कमला मइया, हुइ यो ! , कोसी मइया, हुइ यो !
भारत माता, हुइ यो ! , गान्ही बाबा, हुइ यो !
बाह गरोखर, हुइ यो ! , बाह बहादुर, हुइ यो !

जाल पर नियंत्रण और होशियार रहने की क़वायद के बाद किस तरह ये सामूहिक हुंकारा पारंपरिक मछलियों, मछलियों को पोखर में पहुंचाने वाली नदियों और फिर देश को नया रुख देने वाले गाँधी बाबा के उद्घोष तक जा पहुँचता है ये गौर करने वाली बात है।

उपन्यास ने अपने कथ्य में इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि मल्लाहों में लोकप्रिय लोकगीतों को उपन्यास में समुचित स्थान मिले। इस लघु उपन्यास के खत्म होते होते पाठक अपनेआप को मछुआरों की जीवन शैली के करीब पाता है। एक और बात जो मैंने महसूस की वो ये कि पूरे उपन्यास में कोई भी किरदार विकट परिस्थितियों में जीते हुए भी हताश और लाचार नहीं दिखता। उपन्यास पाठकों में अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष में आस्था बनाए रखना चाहते हों।

मछुआ समाज का राष्ट्रीय आन्दोलन में भूमिका


 मछुआ समाज का राष्ट्रीय आन्दोलन में भूमिका
1911 में केवट उपजाति की महासभा बनी थी. महासभा बनने के बाद के काल में निषाद समुदाय के लोगों में राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ. आजादी की लड़ाई में निषादों की सहभागिता भी बढती गयी.
 1942 की अगस्त क्रान्ति में जुब्बा सहनी, बिंदेश्वर सहनी, बांगुर सहनी, जगदेव सहनी, सागर सहनी, दिबाली मछुआ की शहादत निषादों की सहभागिता को रेखांकित करने वाले अविस्मरनीय उदाहरण हैं. मुज्जफरपुर जिले के चैनपुर ग्राम में 1906 में जन्मे  जुब्बा सहनी स्वाभिमानी थे. वह खेत मजदूरी करते थे. एक बार ईख के खेत में काम करते समय एक अंग्रेज अफसर ने इन्हें अपशब्द कहते हुए जुटे की ठोकर मारी तो इन्होंने उस अंग्रेज अफसर की ईख के डंडे से पिटाई कर दी. इस कारण मीनापुर के दरोगा वालर ने इनके विरुद्ध अभियोग दायर कर दिया. फिर क्या था.
 जुब्बा सहनी आजादी के दिवानों की टोली में शामिल हो गये. 1942 की अगस्त क्रान्ति में जुब्बा सहनी ने देशभक्तों के जत्थे के साथ मीनापुर  थाने को घेर लिया और थानेदार वालर को थाना छोड़ देने का आदेश दिया. इस क्रम में वालर ने भीड़ पर गोलियां चला दी, जिससे बिन्देश्वर सहनी और बांगुर सहनी शहीद हो गये. क्रोधित भीड़ ने वालर को पकड़ लिया और थाने के फर्नीचर को जमाकर उसमे आग लगा दी और वालर को उस आग में झोंक दिया. जुब्बा सहनी गिरफ्तार कर लिए गये. उन्हें फंसी की सजा हुई. 11 मार्च  1944 को भागलपुर केंद्रीय कारा में उन्हें फांसी दी गयी.
 मुज्जफरपुर के चांदपुर थाने के सागर सहनी ने भी भारत-छोडो आन्दोलन में सक्रिय सहयोग दिया. अगस्त 1942 में पुलिस की गोली बारी में घायल होने के बाद मोतिहारी अस्पताल में इनकी मृत्यु हो गयी.
पूर्णिया जिले के रुपौली थाने पर 25 अगस्त 1942 को आक्रमण में शामिल जगदेव सहनी पुलिस की गोली से घायल होने के बाद शहीद हो गये. आन्दोलनकारी होने के जुर्म में सब्जीबाग, पटना के निवासी दिबाली मछुआ को 26 अगस्त 1942 में ब्रिटिश पुलिस द्वारा कृष्णाघाट, पटना के निकट गोली मार दिया गया.
समस्तीपुर जिला के गुनाई बसही ग्राम के श्री कोशी सहनी के पुत्र डा. मुक्तेश्वर सिन्हा दरभंगा चिकित्सा विद्दालय के मेधावी छात्र तो थे ही उन्होंने कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य के रूप में राजनीती भी की. उन्होंने ताजपुर में विद्दालय की स्थापना भी करवाई. 1942 की क्रान्ति में अपने क्रन्तिकारी साथियो के साथ ताजपुर थाने पर राष्ट्रीय झंडा फहराया. नगर के मार्ग अवरुद्ध किये एवं पुल उड़ा दिया. इन आरोंपों में उन्हें 50 बेंत की सजा दी गयी और समस्तीपुर जेल में बंद कर दिया गया.