‘वरुण के बेटे’ : मछुआरों की जिन्दगी में झाँकता नागार्जुन
का राजनीतिक उपन्यास
सुविख्यात प्रगतिशील कवि-कथाकार
नागार्जुन का यह बहुचर्चित उपन्यास बड़े-बड़े गढ़ों-पोखरों पर निर्भर मछुआरों की कठिन जीवन-स्थितियों को अनेकानेक उन्तरंग विवरणों सहित उकेरता
है। लगता है, लेखक बरसों उन्हीं के बीच रहा है-वह उनकी तमाम
अच्छाइयों-बुराइयों से गहरे परिचित है और उनके स्वभाव-अभाव को भी भली-भाँति पहचानता है। तभी तो वह खुरखुन
और उसके परिवार को केन्द्र में रखते हुए भी मछुंआरा
बस्ती मलाही-गोंढियारी के कितने ही स्त्री-पुरुषों को हमारे अनुभव का स्थायी हिस्सा बना देता है। फिर चाहे वह पोखरों पर काबिज शोषक शक्तियों के
विरुद्ध खुरखुन की अगुवाई में चलनेवाला संघर्ष हो अथवा मधुरी-मंगल के बीच मछलियों-सा तैरता और महकता प्यार। अजूबा नहीं कि कहीं हम स्वयं को खुरखुन की
स्थिति में पाते हैं तो कहीं मधुरी-मंगल की दशा में।
‘वरुण के बेटे’(1957), मे समाजवादी चेतना को मछुआ संघ के द्वारा प्रस्तुत किया है, जिसमे शिथिल कथावस्तु, पत्रात्मक चरित्र और उद्देश्य में नारेबाजी स्पष्ट प्रतिध्वनित होती है । लोग नारे लगाते है --इन्कलाब जिन्दाबाद। । मछुआ संघ जिन्दाबाद, हक की लडाई जीतेंगे । गढ पोखर हमारा है, हमारा है । बाबा बटेश्वरनाथ की समीक्षा करते हुए एक आलोचक ने जो बात बाबा नटेसरनाथ के बारे मे प्रकट की है वह
वरुण के बेटे के बारे मे ठीक उतरती है ।
'वरुण के बेटे' हिंदी और मैथिल के जाने माने कवि व उपन्यासकार नागार्जुन का एक लघु उपन्यास है। नागार्जुन ने इस
उपन्यास के माध्यम से मछुआरों की जीवन शैली, उनके रहन सहन और उनके उन सरोकारों की ओर
झाँकने का प्रयास किया है जिनसे उनकी
रोज़ी रोटी की बुनियाद जुड़ी है।
नागार्जुन की कथ्य शैली निश्चय ही इस उपन्यास को एक आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में ला खड़ा करती है। जिस विस्तार से मछुआरों के जीवन की हर छोटी बड़ी बात को लेखक उपन्यास में समाहित करते चलते हैं ये लघु उपन्यास इसी इलाके में अवस्थित एक जलाशय गढ़-पोखर और उससे जुड़े लोगों की कहानी कहता है।
'वरुण के बेटे' की पूरी कथा एक छोटे मछुआरे
खुरखुन और उसके परिवार के इर्द गिर्द घूमती है। मछुओं में छोटे और बड़े मछुआरों में
वही भेद है जो खेती करने वाले एक भूमिहीन और जमीन वाले किसान के बीच होता है।
वैसे तो एक ज़माने मे गाँवों के बीच के ये गढ़ैया तलाब जमींदारों की निजी मिल्क़ियत का हिस्सा होते थे। पर आज़ादी के बाद नए कानूनों के आ जाने से जब इन पर भू स्वामियों का अधिकार खत्म होने को आया तो औने पौने में उन्होंने इन जलाशयों में मछली पकड़ने की बंदोबस्ती गैरकानूनी रूप से इलाके के दबंगों को सौंप दी। 'वरुण के बेटे' में बाबा ने इस बदलते परिवेश में उन मछुआरों की कहानी कहनी चाही है जिन्होंने सामूहिक रूप से एक जुट होकर अपने पर होते अन्याय के खिलाफ़ कमर कसी और अपने उद्देश्य में बहुत हद तक सफल भी हुए।
इस उपन्यास में खुरखुन की बिटिया मधुरी का प्रेम प्रसंग भी है। पर ये प्रेम उपन्यास की मुख्यधारा में नहीं है। मधुरी प्रेम तो करती है पर समाज के क़ायदे कानून के भीतर। इसलिए ना तो वो अपने प्रेमी के, ना ही ख़ुद के परिणय सूत्र में बँधने के पहले कोई ऐतराज जताती है। सच तो ये है कि उपन्यास के किरदारों में व्यक्तिगत सुख की आकांक्षा से ज्यादा अपने समाज का कल्याण सर्वोपरि है। यही वज़ह है कि ससुराल से पिट पिटाकर मधुरी जब मछुआरों के संगठन में काम करने की इच्छा जताती है तो उसके पिता ना केवल उसे इसकी इज़ाज़त देता है बल्कि बेटी को इस रूप में देखकर वो फक़्र महसूस करता है।
आंचलिक उपन्यासों की एक खासियत होती है कि वो आपको उस अंचल के लोकगीतों से परिचय कराते चलते हैं। मछुआरों के जीवन में तो लोक संगीत वैसे भी पानी में उछलती मछलियों की तरह ही कुलाँचे मारता फिरता है।
या फिर मछुआरों के महाजाल को निकालते समय मछुआरों का सामूहिक गीत
ऊपर
टान, हुइ यो ! बाँए दबके, हुइ यो !
झाड़मझाड़, हुइ यो ! पीछे हटके, हुइ यो !
झट झटक, हुइ यो ! , पैर पटक, हुइ यो !
साबित
ख्याल, हुइ यो ! , जाल सँभाल, हुइ यो !
रेहू
ब्वारी, हुइ यो ! , मोदनी भुन्ना, हुइ यो !
नैनी
भाकुर, हुइ यो ! , उजला सोना, हुइ यो !
लाल
चाँदी, हुइ यो ! , गंगा मइया, हुइ यो !
कमला
मइया, हुइ यो ! , कोसी मइया, हुइ यो !
भारत
माता, हुइ यो ! , गान्ही बाबा, हुइ यो !
बाह
गरोखर, हुइ यो ! , बाह बहादुर, हुइ यो !
जाल पर नियंत्रण और होशियार रहने की क़वायद के बाद किस तरह ये सामूहिक हुंकारा पारंपरिक मछलियों, मछलियों को पोखर में पहुंचाने वाली नदियों और फिर देश को नया रुख देने वाले गाँधी बाबा के उद्घोष तक जा पहुँचता है ये गौर करने वाली बात है।
उपन्यास ने अपने कथ्य में इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि मल्लाहों में लोकप्रिय लोकगीतों को उपन्यास में समुचित स्थान मिले। इस लघु उपन्यास के खत्म होते होते पाठक अपनेआप को मछुआरों की जीवन शैली के करीब पाता है। एक और बात जो मैंने महसूस की वो ये कि पूरे उपन्यास में कोई भी किरदार विकट परिस्थितियों में जीते हुए भी हताश और लाचार नहीं दिखता। उपन्यास पाठकों में अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष में आस्था बनाए रखना चाहते हों।