सभ्य
लोग कहते हैं कि समाज तरक्की कर रहा है.
समाज में एकता कायम हो रही है. लोग पुरानी चीजों को तोड़ रहे हैं. एक साथ
उठाना-बैठना, साथ खाना-पीना, साथ सफर करना, नोकरी पेशा करना इत्यादि. उपर्युक्त
बातें जब फीकी पड़ जाती है जिस वक्त यह पता चलता है कि अभी भी हमारे देश में जातिगत
भेदभाव होता है. यहाँ तक कि सवैंधानिक दृष्टि से भारत में ऊँची-नीची जाति नहीं
हैं. सभी बराबर हैं. लेकिन फिर भी ये भेदभाव बरकरार है. आज भी कुछ लोगो के दिमाग
में रुढ़िवादी चीजें हैं, जो लोगों को आगे बढ़ाने में बाधा डालते है.
ऐसी ही एक घटना जो पिछले दिनों इंदौर के खंडवा
जिले के ग्राम बैडियाल में घटित हुई. बैडियाल ग्राम की कुछ महिलाएं एक शासकीय
स्कूल में खाना बनाने का कम करती थीं. लेकिन ग्राम के सरपंच ने उन्हें यह कहकर मना
कर दिया कि ‘आप मछुआरे हो आपके हाथ से भोजन नही बनवायेंगे यदि हम आपसे बनवायेंगे
तो हमारा धर्म भ्रष्ट हो जायेगा.’ इतनी महंगाई में नौकरी छूटने की डर से उन
महिलाओं ने स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष के नेतृत्व में जिला कलेक्ट्रेट को
ज्ञापन दिया. ज्ञापन में उन्होंने बताया कि सरपंच ने दूसरी बिरादरी के लोगों का
समूह बनाकर उन्हें काम देने को कहा है. इसके आलावा शराब पीकर अन्य लोगों के साथ
लाकर महिलाओं के साथ छेड़खानी करता है और गली-गलौज भी करता है, उनका पकाया हुआ खाना
भी फेंक देता है. विरोध करने पर महिलाओं को पिटता है. उन्होंने बताया कि उनके पास
पहले चार आंगनबाड़ी केंद्र थे जिनमें से दो केन्द्रों को दूसरी बिरादरी के लोगों को
दे दिया गया और स्कूलों का भी इसी तरह बंटवारा किया गया.
यह घटना पहली और आखिरी नहीं है. जातिवाद पर
आधारित इस तरह की घटनाएँ आये दिन अलग-अलग राज्यों (हरियाणा, दिल्ली, यूपी,
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब) में उत्पीड़न और शोषण की घटनाएँ पिछले दिनों चर्चा
में रही.
आज हम देखते हैं कि रोज कोई न कोई घटना शुद्र व
दलित जाति मानी जाने वाली सैकड़ों जातियों के साथ अमानवीय बर्ताव किया जाता है, उनके
पारम्परिक रोजगार छीने जा रहे हैं, उन्हें जल-जंगल-जमीन से बेदखल किया जा रहा है. लेकिन इसका प्रतिरोध अलग-अलग राज्यों एवं
अलग-अलग समूहों और संगठन के द्वारा किया जाता है और राजनैतिक पार्टियाँ कोई भी हस्तक्षेप नहीं करती है बल्कि वोट बैंक
की राजनीती पर उतर जाति है जिससे समाज में तनाव पूर्ण माहोल बन जाता है .
इन तमाम क्रूर और अमानवीय भेदभाव के प्रति
आन्दोलन से सबक लेने की जरूरत है.1990 के बाद भारत में वैश्वीकरण, उदारीकरण,
निजीकरण की नीतियां लागू की गयी. जिससे संगठित रोजगार धीरे-धीरे समाप्त होता चला
गया और बेरोजगारी बढ़ने लगी. जो जातियां परम्परागत कामों में लगी थीं उनको धीरे-धीरे
धन और सत्ता के द्वारा छीना जा रहा है. इसीलिए धर्म, सम्प्रदाय, जाति के आधार पर
अमानवीय और उत्पीड़न और शोषण की दर बढ़ती जा रही है.
साथियों इस समस्या की जड़ आर्थिक गैर बराबरी और
समाज की सामन्ती सोच जिम्मेदार है. इसीलिए अलग-अलग आन्दोलन करने से सामाजिक व
राजनैतिक तौर पर एकता स्थापित नहीं होंगी और सरकार इन आंदोलनों का एक-एक कर दबा
देती है. अतः देश व्यापी आन्दोलन के लिए वैचारिक एकता स्थापित करने की जरूरत है
ताकि सड़ी-गली सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी को खत्म किया जा सके.
-आरिफा
-आरिफा