Sunday, 11 November 2012

समाज ने भारत स्वतंत्रता के पक्ष में कहारस्थान की मांग वापस ली


आजादी के आखरी दशक में देशभर में राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियाँ काफी तेजी से प्रारम्भ हो गई थीं। 100 वर्षों की स्वतंत्रता संग्राम के चलते अंग्रेजों के देश छोड़कर जाने के आसार दिखने लगे थे। वहीं सिखस्थान की मांग मास्टर तारासिंह उठा रहे थें। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भी उत्तर पूर्व में डा0 जे ड.ए. किंजों नागालेंड की मांग कर रहे थे। मिजोरम में लाल डेगा, डा0 जयपाल सिंह पृथक झारखंड गणतंत्र की मांग लेकर चल पड़े थे। देश  के पिछडे आदिवासी निषाद (भोई) समुदाय भी आन्दोलित हो रहा था, तब भोपाल स्टेट के डा0 इन्द्रजीत सिंह ने आल इंडिया कहार महासभा की जनरल मिटिंग में प्रस्ताव पारित  किया | जिसके माध्यम से पृथक कहारस्थान की मांग तात्कालिक लार्ड पेथिक लारेन्स (ब्रिटिश केबिनेट मिशन लंदन) वायसराय दिल्ली को मेंमोरन्डम महासभा द्वारा दिनांक 20/04/1946 को दिया गया। सिख धर्म के उत्थान में कहार समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। इस कारण पंजाब के सामाजिक नेताओं ने कहारस्थान पर भारी जोर दिया। जिस समय कांग्रेस आंदोलनों के फल-स्वरूप साइमन कमीशन भारत आया था, उस समय हमारे नेताओं जिनमें डा0 इन्द्रजीत सिंह के साथ श्री महावीर प्रसाद , श्री दुर्गादत्तसिंह कुशन बिजनौर, श्री गुलजारी मल जी बाथम पीलीभीत आदि बुद्विजीवी समाज के नेता थें, उन्होंने देश की स्वतंत्रता के समय कहारस्थान की मांग की थी। इस कारण देश के दूसरे प्रातों में भी कुछ इस प्रकार की मांगें उठी थी। छूत एवं अछूत का प्रश्न भी गर्माहट के साथ उठा था। यह प्रश्न बाबा साहेब अबेँडकर  ने उठाया था। जिस समय समाज का प्रबुद्ध वर्ग जाति का नाम बताने में लज्जा अनुभव करता था, उस समय डा0 इन्द्रजीत सिंह जी ने सार्वजनिक मञ्च से कहार महासभा का झंडा उठाया था, जिसमें निषाद महासभा का यथा संभव सहयोग मिला था। इसी समय लगभग सन 1930-31 में होंशंगाबाद में बाबू गुलाबसिंह जी की अध्यक्षता में कहार सम्मेलन का वृहद् आयोजन किया गया था, जिसमें भोपाल सहित देश के विभिन्न प्रान्तों से आए नवयुवकों ने स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया था, डा0 सहाब समाज को संगठित करने, उनकी समस्याओं को अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश तथा स्थानीय शासन के सामने नियमित रूप से रखते रहे। राजनीति के मञ्च पर विशेष रूचि के साथ उन्होंने सन 1945 के पश्चात भाग लिया,  भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई के समय ही हमारे नेताओं को अनुमान हो गया था कि स्वतंत्रता के पश्चात हमारे समाज के साथ न्याय नहीं किया जायेगा । इसी कारण कहारस्थान की मांग की गई थी, मास्टर तारा सिंह जी ने भी खालिस्तान मांगा था। सन् 1946 में देश की अन्तरिम सरकार बनी थी तब लाहौर से प्रकाशित डान अखबार ने एक कार्टून छापा था, नीचे लिखा था, पंडित नेहरू वरूण देवें के दरबार में अर्थात अन्तरिम सरकार में हमारे समाज का प्रतिनिधि लेने की बात चल रही थी। कांग्रेस के द्वारा आश्वासन देने पर समाज ने भारत स्वतंत्रता के पक्ष में कहारस्थान की मांग वापस ले ली थी। इस समय समाज को गोत्रों के आधार पर संगठित करने के प्रयास त्याग दिया था, क्योंकि भारत में भिन्न भिन्न प्रदेशों में अनेंकों गोत्र, उपजातियां हैं, इसी समय समाज का पत्र कर्णधार का प्रकाशन भोपाल से किया,पश्चात् उसका प्रकाशन एक प्रकाशन मंडल बनाकर झांसी से प्रकाशित किया गया, जिसके मुख्य प्रकाशक श्रीसुन्दरलाल जी रायकवार थे।निषाद समुदाय की राजनीतिक गति विधयों का प्रमुख केन्द्र भोपाल रहा, ओर राजनैतिक चेतना का केन्द्र बिन्दु अखिल भारतीय निषाद समाज का कर्णधार रहा है।
                                                                         -सुदीप शंकर डोङिया

ओ मांझी चल


ओ मांझी चल \-
तू चले तो छम\-छम बाजे मौजों की पायल
ओ मांझी चल, ओ मांझी चल, ओ मांझी चल, ओ ओ मांझी
चल
 
(तेरा जीवन नदीया की धार है
तन है नैय्या, मन पतवार)    \-
सुन ओ मांझी,  मौजों की पुकार है
थाम ले तू
थाम ले तू मस्त पवन का, लहराता आंचल
ओ मांझी चल, ओ मांझी चल, ओ मांझी चल, ओ ओ मांझी
चल
 
(आशाओं से नाता जोड ले
ये निराशा के बंधन तोड दे)   \-
सुन ओ मांझी, आज का गम तू छोड दे
आज तो पीछे
आज तो पीछे रह गया है, सामने है कल
ओ मांझी चल, ओ मांझी चल, ओ मांझी चल, ओ ओ मांझी
चल
                                                      गीतकार / Lyricist:  आनंद बक्षी-(Anand Bakshi) 

ओ मांझी रे, अपना किनारा, नदिया की धारा है



ओ मांझी रे,  अपना किनारा,  नदिया की धारा है
ओ मांझी रे ...



साहिलों पे बहने वाले
कभी सुना तो होगा कहीं, ओ ...
हो,  कागज़ों की कश्तियों का
कहीं किनारा होता नहीं
हो मांझी रे ... मांझी रे
कोई किनारा जो किनारे से मिले वो,
अपना किनारा है ...
ओ मांझी रे ...


पानियों में बह रहे हैं
कई किनारे टूटे हुए ओ ...
हो, रास्तों में मिल गए हैं   
सभी सहारे छूटे हुए ...
कोइ सहारा मझधारे में मिले वो,
अपना सहारा है ...

ओ मांझी रे,  अपना किनारा,  नदिया की धारा है
ओ मांझी रे ...
                                          - गुलज़ार

दीवाली के दीप जले

नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले
                      धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
                      लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले
नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले
                      लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
                      लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले
निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले
                     लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
                     कह ता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले
कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले
                    मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
                   आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले
तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले
                  जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
                  ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले
                 देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
                 रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले
                जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
                रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले
रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले
               जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
               चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले
                लाखों चराग़ों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
                तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले
                ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
                धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले
बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले
               छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज फ़िराक़ सुनाता है
               ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले

-फिराक गोरखपुरी

नई शताब्दी में निषाद समाज का मूल्यांकन

नई शताब्दी में निषाद समाज का मूल्यांकन             
दोस्तों हमारा निषाद समाज आज इतना पिछड़ा हुआ है. इसके पीछे कोई एक या दो कारण मात्र नहीं हो सकते. किसी भी समाज के उत्थान या पतन के पीछे कई कारणों का हाथ होता है. नई शताब्दी में निषाद समाज का मूल्यांकन किया जाना चाहिए. आज हम नई सदी की दलहीज पर खड़ें हैं. नई सदी हमारे समाज के लिए कैसी हो सकती है ? पिछली पूरी सदी समाज सुधारों की विफलता की सदी कही जा सकती है.
नई सदी में निषाद समाज के समक्ष वास्तव में गंभीर चुनौतियाँ हर क्षेत्र में हैं. विशेष रूप से राजनीति, अर्थ और संस्कृति की चर्चा करना चाहूँगा, बात राजनीत से शुरू करना चाहूँगा जिस प्रकार से निषाद समाज राजनैतिक अधिकारों से आज तक वंचित है, निषाद समुदाय की राजनीति, सत्ता, दिशा और नेतृत्वविहीन है. आज राष्ट्रीय नेतृत्व में मछुआ समुदाय की उपस्थिति दयनीय है.
धर्म शास्त्र का अध्ययन और मूल्याकंन किया जाये तो आप देख सकते हैं कि धर्म शास्त्र जो दैविक वस्तुओं से सम्बन्धित प्रवचन है. धर्म शास्त्र विभिन्न प्रकार के होते हैं. जैसे पौराणिक धर्मशास्त्र, नागरिक धर्मशास्त्र, प्राकृतिक धर्मशास्त्र आदि है, जो जगत की व्यवस्था करता है और प्रत्येक को कर्मानुसार दंड और पुरस्कार प्रदान करता है. आज इन धर्मशास्त्रों में तलाशने की जरूरत है कि किस प्रकार के धर्मशास्त्रों को अपना आधार बनाना है या हमारे समाज के महापुरुषों को आधार मान कर धर्म मान लेने की जरूरत है ? आप निषाद समाज को किस रूप में देखना चाहते हैं ? क्या निषाद समाज धर्म में कोई आपना आधार चुन सकता है या किसी के सहारे से आगे बढ़ सकता है ? 
निषाद समुदाय के इतिहास पर नजर डाली जाये तो भील्ल शब्द का तात्पर्य भील-बिल भेदने की धातु की प्रक्रिया से है और यह शब्द महाभारत, रामायण में निषाद के लिए प्रयुक्त किया गया था. भील शब्द 600 ई से प्रयोग में आया. इससे पहले वनपुत्र, पुलिन्द आदि नाम से जाना जाता था. कुछ विद्वानों का मानना है कि भील को संस्कृत भाषा में म्लेच्छ के रूप में प्रयोग किया गया है. भागवत पुराण में इन्हें वेणराज की संतान के रूप में उल्लेख मिलता है. महाभारत में एकलव्य की कथा अंकित है. लेकिन आज निषाद समाज को विभिन्न जातियों के रूप में मौजूद हैं जैसे- केवट,  मांझी, बिंद, मल्लाह, कश्यप, रायकवार, कहार, गौंड, आदि के रूप में देखने और सुनने को हर जगह मिल जायेंगे. लेकिन आज तक ये समुदाय सही से अपना इतिहास नहीं बना पाया है. इसलिए दूसरे समुदाय के लोग अपने हिसाब से इतिहास बता कर रोटी सेंक लेते हैं.
 निषाद समाज का आधुनिकता में मूल्याकंन किया जाये तो ये समाज परम्परा और रूढ़ियों में इस तरह से जकड़ दिया गया हैं कि वह आज यह नहीं समझ नहीं पा रहा है कि आधुनिकता में जी रहे हैं या उत्तराधुनिकता में. आज इस समाज के सामने हजारों सवाल हैं. परम्परा के रूप में हमारे समाज को बाँध के रखा गया है. निषाद समाज में ज्यादा सुनने को मिलता है कि  त्रेता के बाद द्रपर फिर कलयुग आएगा और आज तक कलयुग चल रहा है ये आप को सुनने को मिलता रहता है. ये परम्परा जो ब्राह्मनों ने रची है. समाज को यह पता नहीं कि हर पाच या दस साल में परिवर्तन होता रहता है जैसे- आज आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता और फिर उत्तर संरचना आधुनिकता में आज समाज चल रहा है. आज भी हमारा समाज कलयुग और त्रेता के चक्कर में पड़ा है. जब देश आजाद नहीं हुआ था, हमारे समाज की स्थिति क्या थी ? फिर अंग्रेजों ने भी भारत के परम्पराओं को छूने के काम नहीं किया क्योंकि 1857 की क्रान्ति में मंगल पांडे ने गाय की चर्बी का किस तरह से विरोध किया था. इसी डर से अंग्रेजों ने परम्पराओं को छूने को कोशिश नहीं की. इस तरह से मानव अध्ययन को शुरू कराया जिसे समाज विरोध न करे. इस तरह से निषाद समाज का आज मानव अध्ययन इसी के आधार पर किया जाता है, उसी के आधार पर सरकार समाज को संचालित करने का काम करती है. क्या किया जाय की निषाद समाज न विद्रोह करे, न आदोलन करे, इन सब गतिविधियों पर ध्यान रखा जाता है. निषाद समाज आपनी परम्पराओं से बाहर निकले और आज के समाज में अपने बच्चे, स्त्रियों को रख कर देखे कहाँ है हमारा समाज. आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता आदि को जानने के कोशिश करे जो लगभग हर समाज को जीने का एक नया जीवन दिया है. आज सामाजिक स्तर पर बदलाव और अपने अधिकार फिर से लेने की कोशिश करे दूसरे की न सुने, अपनी सुने और अपना अधिकार लेने के कोशिश करे.
आज निषाद समाज गरीबी, भुखमरी, शोषण जैसी तमाम परिस्थितियों से गुजर रहा है. इसका देखने-सुनने वाला कोई नहीं है. आज इस समाज को हर तरह से लूटने का काम किया जा रहा है जैसे- राजनीति करके, अशिक्षित करके, भूमहीन बनाकर, मजदूर बनाकर, जिसको जिस तरह मिल रहा है वह वैसे ही लूटने का काम कर रहा है. निषाद समाज एक हो अपना अधिकार जाने और जो सामाजिक अधिकार दिया जाये, उसे लेने का काम करे. ये तभी संभव है जब निषाद समाज एक होगा. तब तक एक मंच के तहत यह नहीं होगा जब तक हर कोई अपने-अपने तरीके से लूटने का काम करेगा और निषाद समाज लुटता रहेगा. निषाद समाज अपना अधिकार जाने, एक हो और एक मंच बने और अपना वर्चस्व फिर से कायम करे.
                                                                                                                                                                                                                 -बलराम बिन्द