पिछले एक माह से भारत का शासक वर्ग ही नहीं
वैश्विक अर्थव्यवस्था के पैरोकार भी भारतीय अर्थव्यवस्था के महाशक्ति न बन पाने के
लिए मौजूदा हालात की आलोचना कर रहे हैं. ऐसा क्या हुआ जिसके चलते भारत का विश्व की
महाशक्ति बनने का सपना इस सब की नजरों से हटता जा रहा है? गौरतलब है कि बीते वर्ष
6.5 आर्थिक वृद्धि दर 9 वर्षों के निचले स्तर पर पहुँच गयी है. इससे सभी विदेशी
बैंकों और विश्लेषकों गोल्डमैन साक्स, मार्गन स्तेलनी, सिटी बैंक और एच.एस.वी.सी
ने भी देश वृद्धि दर के अनुमान को घटाकर कह रहे हैं कि स्थिति 1991 जैसी आगयी है.
उद्दोग संगठन “अमेरीका-भारत व्यापार परिषद
(यू.एस.आई.बी.) के नए चेयरमैन अजय बंगा ने कहा कि नीतियों में अनिश्चितता के कारण
भारत की प्रगति बाधित हो रही है. इससे विदेशी निवेशक निवेश करने से बच रहे हैं.
दूसरी तरफ भारतीय प्रतिभूमि विनिमय बोर्ड (सेबी) के अध्यक्ष यू.के.सिन्हा ने कहा
कि महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों में साल दर साल होती देरी से निवेशकों की मनोदशा
सुधरने तथा कमजोर पड़ती आर्थिक वृद्धि को रोकने की तुरंत आवश्यकता है.
भारत के उद्दोगपतियों ने भी नीतिगत मोर्चे पर
लाचारी की बढ़ती अवधारणा के बीच अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत की आलोचना करते हुए
कहा कि इससे भारत की छवि को नुकसान हुआ है. नारायण मूर्ति ने कहा कि भारत के सामने
आयी चुनौतियाँ उसने खुद पैदा की हैं, इससे भारत की छवि प्रभावित हुई है. वहीं
दूसरी ओर अजीम प्रेम जी ने भी कहा कि हम देश के रूप में किसी नेतृत्व के बिना ही
काम कर रहे हैं. अगर हम नहीं बदले तो सालों पीछे चले जायेंगे.
जब ये सभी भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में अपनी
नाराजगी जता रहे थे, रही सही कसार स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स की चेतावनी ने पूरी कर
दी. अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एंड पुअर्स ने चेतावनी दी है कि वह भारत की
निवेश साख घटा सकता है. चेतावनी के पीछे जो कारण बताये गये हैं वो यह है कि भारतीय
अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है, विकास दर धीमी हो चुकी है तथा आर्थिक सुधारों
में राजनीतिक गतिरोध आगे आ रहा है.
वहीं दूसरी तरफ वैश्विक रेटिंग एजेंसी फिच ने भी
वित्तीय साख पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. फिच ने
भ्रष्टाचार, अपर्याप्त सुधर, ऊँची मुद्रा स्फीति का हवाला देते हुए कहा कि
देश की वित्तीय हालत आने वाले समय में और बिगड़ने हैं. यही नहीं रेटिंग एजेंसी ने
सार्वजनिक क्षेत्र की गेल, इंडियन आयल, एन.टी.पी.सी. व अन्य चार कम्पनियों की
क्रेडिट रेटिंग भी हटा दी है.
आखिर उदारीकरण के पैरोकारों को भारतीय
अर्थव्यवस्था की इतनी चिंता क्यों है? अगर इसकी गहराई से जाँच पड़ताल की जाये तो हम
पायेंगे कि अभी भी बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ उदारीकरण की नीतियाँ लागू नहीं की
गयी हैं. सी.एम.आई.ई. के अनुमान के मुताबिक पिछले वित्त वर्ष में 5000 अरब रूपये
की 500 परियोजनाएं अनिवार्य मंजूरी की वजह से लटकी पड़ी है. यही नही कर्मचारी
भविष्य निधि संगठन (ई.पी.एफ.ओ.) के 2,00,000 करोड़ रुपये को बाजार में नहीं लगाया
गया है. इसीलिए देशी विदेशी निवेशकों की गिद्ध दृष्टि इस फंड पर बहुत दिनों से लगी
हुई है. सेबी के अध्यक्ष ने तो यहाँ तक कहा कि यदि थोड़ा फंड भी बाजार में लग जाये
तो इसका काफी मतलब होगा.
देशी-विदेशी पूंजी भारतीय खेती को अपने अनुकूल
ढालना चाहती है इसीलिए वे राष्ट्रिय-अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर यहाँ के खेत, पानी
व अन्य प्राकृतिक संसाधनों, लाखो प्रजातियों के पौधो के जीन प्रयोगशालाएं , यहाँ
तक कि वैज्ञानिकों तथा किसानों की पैदावार पर पूरी तरह कब्जा चाहते हैं. वे चाहते
हैं कि किसानों के लिए ठेका खेती का जो माडल तैयार किया गया है उसे शीघ्र ही लागू
किया जाये ताकि कारगिल, मोनसेंटो, आई.टी.सी., महेंद्र एंड महिंद्रा और पेप्सीको
जैसी अन्य कम्पनियों का ठेका खेती द्वारा आबाध रूप से मुनाफा कमाने का सपना पूरा
हो सके.
कृषि विविधिकरण के नाम पर सफेद मुस्ली जटरोफा व
फूल की खेती को अधिक से अधिक बढ़ावा मिल सके ताकि गेंहू, उड़द, मुंग इत्यादि के आयात
के सारे दरवाजे खुल सकें. उदारीकरण के पैरोकार लगातार दबाव बना रहे हैं कि कृषि
क्षेत्र को दी जाने वाली तमाम सहायता समाप्त कर दी जाये तथा खाद प्रसंस्करण में
विदेशी पूंजी लगाने की अनुमति शीघ्र अति शीघ्र मिल सके.
आज भी भारत में लगभग 227 सेज प्रस्ताव (3,00,000
हेक्टेयर जमीन) की परियोजनाए राज्य सरकारों द्वारा रियल स्टेट ब्रोकर की भूमिका
निभाने के बावजूद भी जनता के भारी विरोध के चलते अधर में है जिससे देशी-विदेशी
निवेशक बहुत ही बेचैन हैं. असल में उदारीकरण के पैरोकार सड़क, बिजली, पानी,
बंदरगाह, भवन-निर्माण, सेवा क्षेत्र, खुदरा व्यापर, बीमा व बैंक जैसी संरचनागत
निर्माण की अरबों डालर की योजनाओं को जल्द से जल्द शुरू करना चाहता है.
वास्तव में तमाम पूंजीपतियों एवं उनके द्वारा
घोषित एजेंसियों का मकसद नवउदारीकरण के एजेंडे को पूरी तरह से लागू करने के लिए एक
ऐसा माहोल पैदा करना है जिससे आम जनता के दिलों दिमाग में ये बात पहुंचाई जा सके
कि नव उदारवादी नीतियों के बिना देश आर्थिक विकास के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता है.
वर्तमान नवउदारवादी नीतियाँ किसी भी रूप में देश
के हित में नहीं है. इन नीतियों के पैरोकार अपनी परजीवी मानसिकता और जल्द से जल्द
अपनी पूंजी के विस्तार को आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं. प्रधानमंत्री भी अपनी
यात्राओं के दौरान अंतर्राष्ट्रीय पूंजीपतियों को विश्वास दिलाते हैं कि “हमारी
प्रक्रिया भले ही धीमी है लेकिन हमारे देश में मतभेदों से निपटने के कारगर उपाय और
कड़े कानून और तरीके है.”
इन सभी बातों से जाहिर होता है कि पिछले 20
सालों से मेहनतकश जनता को नई गुलामी में जकड़ने की कोशिश की जा रही है. यहाँ तक
आर्थिक सुधारों के लिए पक्ष-विपक्ष एक है. लेकिन जैसे-जैसे इन नीतियों के परिणाम
सामने आये है जनता ने भी बड़े पैमाने पर प्रतिरोध किया है. आज भारत उथल-पुथल की ओर
बढ़ रहा है. यह भावी परिवर्तन के लिए शुभ संकेत है.
- M.C. KASHYAP