अछूतों की मांग है की देश में न्यूनतम योग्यता के आधार पर सरकारी सेवाओं में एक निश्चित अनुपात अछूतों के लिए आरक्षित किया जाये. हिन्दू जैसे अछूतों की अन्य मांगों का विरोध करते है वैसे ही इसका भी करते है. उनका कहना है कि क्षमता और कार्यकुशलता सरकार के लिए आवश्यक है और नौकरियों का आधार वही रहना चाहिए न कि जाति या वर्ग अनिवार्य योग्यताओं के विषय में कोई विवाद नहीं है , न ही क्षमता और कार्यकुशलता के मापदंड के बारे में कोई मतभेद है. मतभेद का एक ही कारण है और वह बहुत महत्वपूर्ण है . वह है कि क्या जाति और वर्ग का सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के लिए ध्यान रखा जाये ? केवल शैक्षिक योग्यता पर टिके रहने के बजाये हिन्दू इस बात पर बल देते है कि सरकारी नौकरियों में नियुक्तियां सभी वर्गों की खुली प्रतियोगिता के आधार पर की जाए. उनका तर्क है कि इससे दोनों उद्देश्यों की पूर्ति हो जाएगी. यह व्यवस्था कार्य कुशलता के उद्देश्यों को पूरा करेगी. दुसरे इससे अछूतों को सरकारी नौकरियों में प्रवेश पर कोई प्रतिबंध भी न होगा.
हिन्दू अछूतों की मांग का विरोध यह कह कर जता रहे है कि कार्यकुशलता और प्रतियोगिता ही विश्वसनीय व्यवस्था है. इसके लिए भी तर्क असली मुद्दे से हटकर दिया जाता है. प्रश्न यह नहीं है कि क्या सरकारी नौकरियों के लिए कार्यकुशल व्यक्तियों का चुनाव प्रतियोगिता के आधार पर किया जाना ही उचित है. प्रश्न यह है कि क्या मात्र यही कर देने से अछूत उम्मीदवार नौकरियों में आ जायेंगे कि प्रतियोगिता जाति और वर्ग का भेद किये बिना सबके लिए खुली होगी. यह देश की शिक्षा प्रणाली पर निर्भर है 1 क्या शिक्षा यथोचित रूप से लोकतान्त्रिक है ? क्या शिक्षा सुविधाओं का व्यापक विस्तार है ? अन्य वर्गों के लोगों को प्रतियोगता के अवसर मिलते है ? यदि नहीं , तो सभी वर्गों को खुली प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए कहना अंधेर है.
भारत में यह मूल स्थिति ही धोखे की जननी है. भारत में उच्च शिक्षा पर हिन्दुओं का एकाधिकार है और वह भी ऊँची जातियों का. इस समाज में अछूतों को तो शिक्षा प्राप्ति के अवसर ही नहीं दिए जाते . उनकी निर्धनता ऊँचे पदों के लिए उच्च शिक्षा दिलाने में सबसे बड़ी बाधा है --- और उच्च सरकारी पद है ,जिनका कोई मतलब होता है , क्योंकि उनका ही कारगर महत्व होता है ये उनकी पहुंच से दूर है. सरकार उनकी उच्च शिक्षा दिलाने का दायित्व नहीं लेगी . उन्होंने अपने प्रस्ताव में यह मांग की है और हिन्दू अपना दान सहयोग अछूतों को नहीं देंगे हिन्दू दानशीलता पूर्णत:साम्प्रदायिक है.
इस तरह नौकरियों के लिए अछूतों को प्रतियोगिता पर निर्भर करने को कहना उनके साथ एक पाखंड है. अछूतों द्वारा कही गयी बात किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है. वे मानते है कि कार्यकुशलता बनाये रखना जरूरी है. इसी कारण अपने प्रस्ताव में उन्होंने स्वयं ही कहा है कि न्यूनतम योग्यता की शर्त पूरी होने पर ही उनकी मांग स्वीकार की जाये. दूसरे शब्दों में अछूतों की मांग यही है कि सभी सरकारी नौकरियों के लिए न्यूनतम योग्यता निर्धारित की जाये और यदि किसी पद के लिए दो व्यक्ति आवेदन करे और अछूत उम्मीदवार न्यूनतम योग्यता रखता है तो चाहे हिन्दू उम्मीदवार को न्यूनतम योग्यता से बढ़कर योग्यता भी प्राप्त क्यों न हो , अछूत उम्मीदवार को प्राथमिकता दी जाये. इसका वास्तविक अर्थ यही है कि नियुक्ति का आधार न्यूनतम योग्यता ही हो , उच्चतम योग्यता नहीं. यह उन लोगों को विचित्र लग सकता है , जिन्हें इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है कि कार्यकुशलता के मापदंड पर सरकारी सेवाओं में कुछ वर्गों का एकाधिकार हो जाय.
पर क्या कैम्पवेल ने यह नहीं कहा कि अपनी सरकार अच्छी कही जाने वाली गैरों की सरकार से बेहतर होती है ? अछूतों की मांग और क्या है ? वे कार्यकुशल प्रशासन को स्वीकार करने के लिए तैयार है इसलिए सरकारी सेवाओं के लिए वे न्यूनतम योग्यता की शर्त स्वीकार करने के लिए तैयार है. अछूत अच्छी सरकार के मुकाबले अपनी सरकार का विचार त्याग देने के लिए तैयार नहीं है. उच्चतम योग्यता के आधार पर बनाई गई सरकार साम्प्रदायिक सरकार होगी इसलिए क्योंकि मात्र हिन्दू ही न्यूनतम योग्यता की अपेक्षा उच्च शिक्षा का दावा पेश कर सकते है.
अछूत ऐसा नहीं चाहते. उनका कहना यह है कि कार्यकुशल सरकार के लिए न्यूनतम योग्यता पर्याप्त है , क्योंकि इसी से अपनी सरकार संभव है. इसलिए सरकारी नौकरियों में प्रवेश के लिए न्यूनतम योग्यता का नियम होना चाहिए. इसी में स्व-सरकार और कार्यकुशल सरकार सुनिश्चित हो सकती है.
डा . भीम राव आंबेडकर द्वारा सन 1942 में लिखित आलेख "सरकारी सेवाएं "सम्पूर्ण वाड्मय खंड -17 अध्याय -7 , पृष्ट -19 .