देश की राजधानी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं। चलती बस में हुए बलात्कार ने इसकी एक बार और पुष्टि कर दी है. इस वहशी वारदात ने यह गवाही ज़रूर पेश की है कि महिलाओं को शिकार बनानेवाले भेड़िये किस हद तक बेख़ौफ़ हो चुके हैं. जहां पुलिस थाने महिलाओं के लिए असुरक्षित बने हुए हों, वहां सार्वजनिक स्थानों पर उनकी हिफ़ाज़त का बंदोबस्त कैसे मुमकिन हो सकता है? इसके लिए सोनी सोरी का उदाहरण काफी है. फ़िलहाल, वह रायपुर जेल में बंद है. उस पर माओवादियों के लिए काम करने का आरोप है. सच उगलवाने के लिए उस पर बेतरह ज़ुल्म ढाया गया. थाने में नंगा कर करेंट के झटके दिये गये और यौनि में पत्थर ठूंसे गये. अंकित गर्ग नाम के जिस पुलिस अधिकारी ने यह वहशियाना काम किया, उसे गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति के हाथों बहादुरी का इनाम मिला.
संसद में 153 सांसद ऐसे हैं, जिनके विरुद्ध गंभीर आपराधिक आरोप हैं और चार ऐसे हैं, जिन पर यौन उत्पीड़न या बलात्कार के मुकदमे दर्ज हैं. ये सब अलग-अलग पार्टियों के हैं. क्या इनका भी - रासायनक या शल्य 'कास्ट्रेशन' (लिंगोच्छेदन) कर दिया जाना चाहिए? क्या इनके लिए भी 'त्वरित-न्यायालय' (फास्ट कोर्ट) बनाया जाना चाहिए और 10-20 दिन के भीतर फैसला हो जाना चाहिए? तरह-तरह के सुझाव आ रहे हैं. सार्वजनिक फांसी के फंदे पर लटकाने से लेकर गोली-पत्थर मारने जैसे. गृहमंत्री ने आजीवन कारावास की सज़ा का सुझाव दिया है. कुछ ऐसे सुझाव भी हैं, जैसे सियाचिन की बर्फीली ज़मीन पर सेना के साथ तैनाती और वहां भी उनको कालापानी जैसी सज़ा. कुछ ने अपराधियों की सारी सम्पति, जायदाद, वेतन, जप्त करके पीड़ित को देने का प्रावधान साथ में सख्त उम्र कैद. लेकिन इस सुझाव पर कुछ ने आपत्ति उठाई है कि इससे अपराधी के परिवार के बच्चों और अन्य सदस्यों को भी सज़ा भुगतनी पड़ेगी, जो निर्दोष हैं. इस पर कुछ अन्य लोगों का कहना है कि यह एक तरह से 'को-लेटरल डैमेज है, जो हमेशा किसी बड़े ऑपरेशन के दौरान होता ही है.
कई साल पहले इसी दिल्ली में रंगा-बिल्ला काण्ड हुआ था, जिसमें दोनों को फांसी की सज़ा दी गयी थी. लेकिन बलात्कार की घटनाएं इसके बाद भी बढ़ती गईं हैं और आज देश में होने वाला हर चौथा बलात्कार दिल्ली में ही होता है. यह अब इस मामले में भी देश की राजधानी बन चुका है.
समझ में नहीं आता कि किसी भी तरह के बलात्कारी की सख्त सज़ा क्या होनी चाहिए।दिल्ली बस बलात्कार प्रकरण चर्चा में है. बलात्कार करने वालों को कड़ी सजा देने का संकल्प लिया जाता है तो मुझे भंवरी बाई और फूलन देवी याद आ जाती है. किसे कड़ी सजा मिली ? पीड़ित स्त्री को या अपराधी को ? यह भी याद करें कि भंवरीबाई बलात्कार के सन्दर्भ में माननीय न्यायधीश ने अपने फैसलें में क्या कहा था कि उच्च वर्ण के भद्र पुरुष बलात्कार कर ही नहीं सकते हैं. याद करें दोनों पीड़ित महिलायें कैसे मार दी गयीं और तथाकथित भद्र पुरुष सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ बने रहे. व्यवस्था से जब न्याय नहीं मिलता तो लोग मेरी बात से सहमत हों या न हों फूलन देवी उसका एक जबाब है .
देश की राजधानी में एक छात्रा के साथ जघन्य बलात्कार सचमुच शर्मनाक और दहलानेवाली घटना है .संसद और मीडिया में इसकी व्यापक चर्चा ,निंदा और रोकथाम के उपायों पर चर्चा होनी ही चाहिए .हुयी यह बहुत अच्छा है ...लेकिन देश के गांवों.जंगलों व सुदूर इलाकों में आदिवासी व दलित महिलाओं के साथ आये दिन होंने वाले बलात्कार और अत्याचार पकार भी देश को कभी शर्म करनी चाहिए.मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशुकुमार जब यह कहते हैं तो क्या गलत कहते हैं कि --"अगर यह देश सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर भरने वाले को इनाम देता है . अगर इस देश को देश भंवरी देवी को अट्ठारह साल बाद भी न्याय देने की कोई ज़रूरत भी नहीं महसूस होती. तो इस देश को करोड़ों दलित और आदिवासी किस हसरत से अपना देश मानेगे ?
जब हम किसी को इस देश का नागरिक होने की तसल्ली देते हैं तो उस तसल्ली में उसे बराबरी और इन्साफ मिलने का वादा होता है. लेकिन हम रोज करोड़ों आदिवासियों पर हमला कर रहे हैं . रोज गाँव और किसानो की ज़मीने छीनने के लिये अपनी फौज़ें अपने ही नागरिकों से लड़ने के लिये भेज रहे हैं. अगर नागरिकों का एक समूह अपने ही देश के नागरिकों के दूसरे समूह के खिलाफ युद्ध करेगा तो यह देश एक कैसे रहेगा ?" हमें सचमुच इस पर सोचना चाहिए .
क़ानून और व्यवस्था को एक सांस में बोला जाता है जब कि इस शब्द युग्म को तोड़ कर पढ़ने की जरूरत है , बीच में एक लंबी सांस इस समानार्थी युग्म के कई भेद सामने ला देगी. हमारे देश में क़ानून से ज्यादा व्यवस्था की हालत खराब है .सजा की भयावहता कभी अपराध कम नहीं कर पाती. आपराधिक विधिशास्त्री अपराध और दंड के सम्बन्ध की बेहतर व्याख्या प्रस्तुत कर सकते है और इसकी तस्दीक भी अपराधी का हौसला सिर्फ इसलिए बढ़ता है क्योंकि वह इस विधिक व्यवस्था की कमज़ोर नब्ज़ पहचानता है , वह जानता है कि यहाँ की लचर न्याय व्यवस्था उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती . दरअसल पुलिस तफ्तीश के दौरान, साक्ष्य संग्रहण के दौरान , इतनी लापरवाही कर बैठती है कि किसी न्यायलय में अपराधी को संदेह से परे दोषी साबित करना मुश्किल हो जाता है . इस समय पुलिस प्रणाली में सुधार, न्यायिक सुधार अनिवार्य और आपात आवश्यकता है. जब तक ये नहीं सुधरेंगी किसी भी न्याय की उम्मीद बेमानी है अभी अपराध के कारणों पर मै कोई बात नहीं करना चाहता वह किसी और पोस्ट में वरना सच तो यह है कि अभी भी आई पी सी में किसी भी अपराध के लिए सजा पर्याप्त है. ये नहीं भूलना चाहिए कि आई पी सी अंग्रेजों की देन है और सजा के मामले में कम से कम उन्होंने कोई ढिलाई नहीं बरती होगी. सजा कितनी हो यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना अपराधी को सजा अनिवार्य रूप से कैसे मिले यह आज की जरूरत है
यक़ीनन, त्वरित फ़ैसला लेनेवाली अदालतें थोड़ा-बहुत कारगर हो सकती हैं. थोड़ा-बहुत इसलिए कि यह क़ानूनी उपाय होगा, राजनैतिक और सामाजिक नहीं। ताज़ा मामले में यह मांग दोबारा उठी है कि बलात्कारियों के लिए फांसी की सज़ा तय हो ताकि कोई अपराधी यह अपराध करने से पहले हज़ार बार सोचे। एक हिस्से ने तो उन्हें सरेआम फांसी दिये जाने की मांग की. संसद के दोनों सदनों में भी यह मांग उठी. लेकिन थोड़ा ठंडे दिमाग़ से सोचने की ज़रूरत है कि क्या यह अदालती बर्बरता नहीं होगी? क्या यह सभ्यता और आधुनिकता की निशानी होगी? जीवन छीनने का अधिकार किसी को नहीं, भले ही गुनाहगार ने इंसानियत को कितना ही शर्मसार क्यों न किया हो. जघन्य अपराधियों को मौत नहीं, कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए और वह भी जल्दी से जल्दी। लेकिन यह भी महिला हिंसा से मुक्ति का अचूक नुस्खा नहीं हो सकता.
सवाल ज़हनियत बदले जाने का है. लेकिन यहां तो बालीवुड से हालीवुड फ़िल्मों तक में हिंसा और सेक्स की भरमार है. बलात्कार के दृश्य तो चटखारा भरने के लिए हैं, दर्शकों को सन्न कर देने के लिए नहीं। टीवी के मनोरंजन चैनल तो ख़ैर न जाने कौन सी दुनिया रचने में मशगूल हैं जहां औरतें पुरातनपंथ से लिपटी और मर्दों की चेरी नज़र आती हैं जिनका अपना कोई स्वतंत्र वजूद नहीं. हमारे शिक्षण संस्थान भी आम तौर पर लड़कियों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाने में मशगूल रहते हैं. जातीय पंचायतों ने तो जैसे महिलाओं के दिल-दिमाग़ को नियंत्रित करने का ठेका ले रखा है. वहां प्रेम की सज़ा मौत है और बलात्कार का मुआवज़ा पीड़िता से बलात्कारी का ब्याह लेकिन उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की हिमाक़त भला कौन करे? वोट की राजनीति इतनी कुत्ती चीज़ जो होती है. जहां पुलिस थाने महिलाओं के लिए असुरक्षित बने हुए हों, वहां सार्वजनिक स्थानों पर उनकी हिफ़ाज़त का बंदोबस्त कैसे मुमकिन हो सकता है?
बलात्कार की समस्या बहुत गम्भीर और गहरी है इसकी जड़ें अतीत की ठहरी हुई जड़ीभूत और सडांध मारती परम्पराओं में है. जो समाज औरत को इन्सान ही नहीं समझता वह अगर औरत को घर से लेकर दफ्तर और सुनसान इलाके तक, ३ साल की बच्ची से लेकर ८० साल की बूढी तक लगातार प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष बलात्कार करता है तो इस पर आश्चर्य नहीं क्षोभ होना चाहिए. लड़कियां इन परम्पराओं को रौंदते हुए घर से बाहर निकाल रही हैं चाहे उनके साथ कितने भी वहशियाना बर्ताव क्यूँ न हो रहा हो वो पीछे मुड़कर देखने को तैयार नहीं. ये एक शुभ संकेत है एक मूलगामी सर्व समावेशी बदलाव और एक स्वस्त समाज का निर्माण ही इसे जड़ से मिटा सकता है.
बेशक़, व्यापक
जन आंदोलन
ही महिलाओं
के पक्ष
में बेहतर
माहौल बना
सकता है
जिसमें महिलाओं
की आज़ादी
और उनकी
इज़्ज़त के
बीच कोई
उल्टा रिश्ता
न हो, कि
उन्हें बिना
किसी ख़ौफ़
के आगे
बढ़ने का
मौक़ा मिले.