Tuesday 2 April 2013

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की


अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की

कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की

बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की

चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की

- फैज अहमद 'फैज

काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने


नुक्ता-चीं है ग़म-ए दिल उस को सुनाए न बने
क्या बने बात जहां बात बनाए न बने

मैं बुलाता तो हूं उस को मगर अय जज़्बा-ए दिल

उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने


खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए

काश यूं भी हो कि बिन मेरे सताए न बने

ग़ैर फिता है लिये यूं तिरे ख़त को कि अगर

कोई पूछे कि यह क्या  है तो छुपाए न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो वह भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन कि यह जलवा-गरी किस की है

पर्दा छोड़ा है वह उस ने कि उठाए न बने

मौत की राह न देखूं कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूं कि न आओ तो बुलाए न बने

बोझ वह सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने

इश्क पर ज़ोर नहीं है यह वह आतिश ग़ालिब

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

ग़ालिब

नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

- दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
 

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
 

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए



दुष्यंत कुमार

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।


जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।


ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।



दुष्यंत कुमार

आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख 


एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख 


अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख 


वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख 


दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख 


ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख 


राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.


दुष्यंत कुमार

हालाते जिस्म, सूरते जाँ और भी ख़राब


हालाते जिस्म, सूरते जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब
दुष्यंत कुमार

एकलव्य - अपने-अपने नजरिए


दलित कहने से न स्त्रियों का बोध होता है, अल्पसंख्यकों का और न ही आदिवासी समुदायों का. दलित बुद्धिजीवी न बाबा साहेब के जमाने में स्वयं को आदिवासी मानते थे, न आज. एकलव्य जैसे आदिवासी चरित्र को दलित की परिधि में नहीं लाया जा सकता. निःसंदेह वह खांटी आदिवासी है...

नाटककार बव कारंत, केएम पणिक्कर, हबीब तनवीर, रतन थियम, भानु भारती की परंपरा में हैंसत्यव्रत राउत. राउत जी ने मेटा 2013 का श्रेष्ठ निर्देशक का अवार्ड जीता है, ‘मत्ते एकलव्यउर्फ एकलव्य उवाचके निर्देशन के लिए. ध्यान देने की बात यह है कि नाटककार और इसके मेटा विजेता निर्देशक ने इस नाट्य प्रस्तुति में एकलव्य को शूद्रऔर अछूतअर्थात् दलित बताया है. जबकि दुनिया जानती है कि महाभारत का एकलव्य भील आदिवासी समुदाय का एक वीर तीरंदाज था. जिसके आग्रह के बावजूद द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या नहीं सिखायी और जब एकलव्य ने स्वाध्याय से तीरंदाजी में महारत हासिल कर ली तो अर्जुनमोहांध द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा में उसका अंगूठा काट दिया.
सत्यव्रत राउत निर्देशित नाटक एकलव्य उवाचका एक दृश्य
महाभारत की यह मिथकीय कथा और एकलव्य का सरल आदिवासी चरित्र भारतीय जनमानस में वैसे ही पॉपुलर है जैसे भगत सिंह. रामायण व महाभारतकालीन वर्गीय दमन और उसके खिलाफ प्रतिरोध की गाथा है यह मिथक, इसीलिए एकलव्यको बार-बार साहित्य एवं विभिन्न कला रूपों में सृजनधर्मी लोग अपने-अपने नजरिए से चित्रित करते रहे हैं. परंतु अधिकांश सृजनधर्मियों ने एकलव्य की आदिवासी अस्मिता को नकारते हुए उसके चरित्र व इस मिथकीय कथा का सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भेदभाव, भ्रष्टाचार (जैसे, शंकर शेष का एक और द्रोणाचार्य’), आज्ञाकारी शिष्य और अधिक हुआ तो अगड़ा बनाम पिछड़ासंघर्ष के संदर्भ में ही परिभाषित किया है. राउत ने भी अपने कुलदीप कुणाल लिखित अपने नाटक में यही रवैया रखा है. हद तो यह है कि इस पूर्वाग्रही नजरिए से एक कदम और आगे बढ़कर उसे अछूतकरार दिया है और उसकी आदिवासी अस्मिता, पहचान व संघर्ष को ही खारिज कर दिया है.

           ऐसा नहीं है कि एकलव्य कोदलितमानने और सिद्ध करनेवाले वे अकेले हैं. हिंदी और अन्य सभी भारतीय भाषाओं में रचे गए कवित्त, साहित्य व नाटक में उसकी पुनर्रचना दलित अथवा शूद्र के रूप में ही की गई है. आधुनिक कन्नड़ रंगमंच के जनक माने जानेवाले टीपी कैलासम ने 1944 में एकलव्य की कहानी पर अंग्रेजी में परपजनाटक लिखा था, जो बाद में कन्नड़ में एकलव्यनाम से चर्चित हुआ. परपजमराठी में भी अनुवादित व मंचित होकर लोकप्रिय हुआ जिसका अनुवाद के. नारायण काले ने किया था. केवी पुटप्पा (कुवेंपु) का बेरळगे कोरळ’ (1947) भी एकलव्य के जीवन पर आधारित है. यह भी कन्नड़ में है. इन सभी नाटकों में एकलव्य कोनिम्न जातिऔर दलित मानते हुए प्रस्तुत किया गया है.
इस सवाल के जवाब में अक्सर एक बात कही जाती है. दलित मतलब वे सभी जो व्यवस्था द्वारा सताए गए हैं, दबे-कुचले हैं. जिनका दमन हुआ व हो रहा है, जो दमित हैं, वे सब के सब दलित हैं. भारत की बहुस्तरीय सामाजिक संरचना और वृहत्तर वर्गीय अवधारणा की दृष्टि से निश्चित रूप से दलित शब्द के इस अर्थ से किसी की असहमति नहीं हो सकती है. पर सभी जानते हैं कि भारत के वंचित और उत्पीड़ित समुदायों में से हरिजन’, ‘अछूतव शूद्र कहे जाने वाले जातियों ने अपने अस्मितावादी आंदोलन से इस शब्द को स्वयं के लिए स्वीकृत और स्थापित कर लिया है. इसलिए अब दलित से न स्त्रियों का बोध होता है, न अल्पसंख्यक और आदिवासी समुदायों का. वैसे भी दलित बुद्धिजीवी न बाबा साहेब के जमाने में स्वयं को आदिवासी मानते थे, न आज. स्पष्टतया एकलव्य जैसे आदिवासी चरित्र को दलित की परिधि में नहीं लाया जा सकता. निःसंदेह वह खांटी आदिवासी है.
राउत जैसे लोग जब यह कहते हैं कि वे एकलव्य के सिर्फ सेल्फ लर्निंग, संघर्ष, प्रकृति प्रेम से अभिभूत हैं और इसी वजह से उन्होंने एकलव्य को पुनर्सृजित किया है, तो उनकी मनुवादी चालाकियां नहीं छुप पातीं. मतलब, जब वे कहते हैं कि एकलव्य का चरित्र जाति और समुदाय से ऊपर है. वह सिर्फ एकइंसानहै जो व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते हुए नए मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है. गर्व से यह भी जोड़ते हैं कि एकलव्य के माध्यम से वे महाभारत जैसे एपिक को री-डिफाइंडकर रहे हैं, तो उनके नाटक का एकलव्य अपने पहले ही दृश्य के पहले परिचयात्मक संवाद में मैं एक अछूत. ... मैं महाशूद्र एकलव्यकह कर उनकी असली मंशा उजागर कर देता है.
यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उनका एकलव्य जातिविहीन, अस्मिताविहीन इंसाननहीं है. फिर वह बार-बार और पूरे नाटक में खुद को तो शूद्र बोलता ही है, दूसरे सहयोगी पात्र भी उसे शूद्र ही कहते रहते हैं. अजीब विरोधाभास है कि एक ओर उन्हें अस्मिताविहीन, जातिहीन एकलव्य पसंद है तो दूसरी ओर एक आदिवासी चरित्र को शूद्र के तौर पर री-डिफाइनकर रहे हैं. अगर आपको एकलव्य का अस्मिताविहीन चरित्र इतना ही पसंद था फिर उसे अछूतऔर शूद्रक्यों सिद्ध कर रहे हैं? उसे आदिवासी नहीं कहना चाहते थे तो अछूत, शूद्र क्यों बना दिया? क्या मजबूरी या सोच है एक जातिविहीन आदिवासी को अछूत बनाने के पीछे? यह कैसी पुनर्व्याख्या है?

मत्ते एकलव्यबहुभाषी नाटक है. संवाद मुख्यतया हिंदी में, कहीं-कहीं संस्कृत और गीत कन्नड़ में हैं. चूंकि कर्नाटक के दलित-आदिवासियों के लोक तत्वों - गीत, संगीत, नृत्य - को लिया है तो जाहिर है कि ये सब कन्नड़ में हैं. प्राचीनता बताने के लिए संस्कृत और देशव्यापी लोकप्रियता के लिए हिंदी जरूरी थी. लेकिन नाटक में आदिवासी भाषा हो, एकलव्य और उसका समुदाय आदिवासी भाषा बोले, वह भी जब मेटा प्रदर्शन में शामिल डिंगरी नरेश यानी कि मुख्य अभिनेता और श्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड जीतने वाला आदिवासी हो, लेखक-निर्देशक को जरूरी नहीं लगा. कहानी, नाच, गान, संगीत, शैली सभी कुछ आदिवासी का लेंगे. लेकिन उनकी भाषा नहीं लेंगे. उनकी आदिवासी अस्मिता से परहेज करेंगे. क्यों? क्योंकि आदिवासी को बेचा जा सकता है. जैसा कि अभी तक बव कारंत, केएम पणिक्कर, हबीब तनवीर, रतन थियम, भानु भारती जैसे लोग करते रहे हैं. राउत इसी आदिवासी हंटपरंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.
इस विमर्श में कन्नड़ के ही एम गोविंद पै का नाटक हेब्बेरळु’ (1946) की चर्चा प्रासंगिक है. हेब्बेरळुमें एकलव्य को भील आदिवासी मानते हुए आर्य-अनार्यसंघर्ष की कथा दृश्यांकित की है राष्ट्रकवि गोविंद पै ने. एकलव्य के जीवन संघर्ष पर संभवतः यह अकेला नाटक है जो उसकी आदिवासी अस्मिता और प्रतिरोध को ऐतिहासिक आर्य-अनार्य संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखता है. क्योंकि गोविंद पै इस नाटक में जो टिप्पणी करते हैं वह बेहद महत्वपूर्ण है और राजनीतिक भी. उन्होंने लिखा है -नोडलिदे नोडलिदे जलदिमीनिन काल’ (पानी में मछली के पाद चिन्ह देखने का समय आनेवाला है, पृ, 50). अर्थात् वे संकेत करते हैं कि भविष्य में भी अनार्य समाज का मुख्यधारा में आना उतना ही मुश्किल है, जितना पानी में मछली के पांवों के निशान पहचानना.
आज का आदिवासी भारत इस राजनीतिक टिप्पणी को सटीकता के साथ व्यक्त करता है. जल, जंगल, जमीन पर अधिकार व अपनी आदिवासी अस्मिता के लिए भारत की पुलिस-सेना से वह मुठभेड़ में है. वह अपने धार्मिक रूपांतरण, सांस्कृतिक कायांतरण और आंतरिक औपनिवेशिक लूट व दमन के खिलाफ निरंतर संघर्षरत है. मुख्यधारा की अवधारणा के खिलाफ है वह. ऐसे में उससे जुड़े मिथकीय चरित्र एकलव्य को जाति में समेट लेना, उसकी आदिवासी अस्मिता को नकारना असलियत में उसके संघर्ष को कमजोर करना है. आदिवासियों को मुख्यधारा में जबरन घसीट लेने की यह कोशिश उस दमन और अन्याय का समर्थन है, जिसे हमारी सरकारें संस्कृतिकरणसलवा जुडूमकहती हैं.
                                                                   अश्विनी कुमार पंकज
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