दलित कहने से न
स्त्रियों का बोध होता है, न अल्पसंख्यकों का
और न ही आदिवासी समुदायों का. दलित बुद्धिजीवी न बाबा साहेब के जमाने
में स्वयं को आदिवासी मानते थे, न आज. एकलव्य जैसे आदिवासी चरित्र को दलित
की परिधि में नहीं लाया जा सकता. निःसंदेह
वह खांटी आदिवासी है...
नाटककार बव कारंत, केएम पणिक्कर, हबीब तनवीर, रतन थियम, भानु भारती की
परंपरा में हैंसत्यव्रत राउत. राउत जी ने मेटा 2013 का श्रेष्ठ
निर्देशक का अवार्ड जीता है, ‘मत्ते एकलव्य’ उर्फ ‘एकलव्य उवाच’ के निर्देशन के
लिए. ध्यान देने की बात यह है कि नाटककार और इसके मेटा विजेता
निर्देशक ने इस नाट्य प्रस्तुति में एकलव्य को ‘शूद्र’ और ‘अछूत’ अर्थात् दलित
बताया है. जबकि दुनिया जानती है कि महाभारत का एकलव्य भील आदिवासी समुदाय
का एक वीर तीरंदाज था. जिसके आग्रह के बावजूद द्रोणाचार्य ने उसे
धनुर्विद्या नहीं सिखायी और जब एकलव्य ने स्वाध्याय से
तीरंदाजी में महारत हासिल कर ली तो अर्जुनमोहांध द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा
में उसका अंगूठा काट दिया.
सत्यव्रत राउत निर्देशित नाटक ‘एकलव्य उवाच’ का एक दृश्य
महाभारत
की यह मिथकीय कथा और एकलव्य का सरल आदिवासी चरित्र भारतीय जनमानस में वैसे ही
पॉपुलर है जैसे भगत सिंह. रामायण व महाभारतकालीन वर्गीय दमन और उसके खिलाफ
प्रतिरोध की गाथा है यह मिथक, इसीलिए ‘एकलव्य’ को बार-बार साहित्य एवं
विभिन्न कला रूपों में सृजनधर्मी लोग अपने-अपने नजरिए से चित्रित करते
रहे हैं. परंतु अधिकांश सृजनधर्मियों ने एकलव्य की आदिवासी अस्मिता को
नकारते हुए उसके चरित्र व इस मिथकीय कथा का सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में
व्याप्त भेदभाव, भ्रष्टाचार (जैसे, शंकर शेष का ‘एक और द्रोणाचार्य’), आज्ञाकारी शिष्य
और अधिक हुआ तो ‘अगड़ा बनाम पिछड़ा’ संघर्ष के संदर्भ में
ही परिभाषित किया है. राउत ने भी अपने कुलदीप कुणाल लिखित अपने नाटक में
यही रवैया रखा है. हद तो यह है कि इस पूर्वाग्रही नजरिए से एक कदम और आगे
बढ़कर उसे ‘अछूत’ करार दिया है और उसकी आदिवासी अस्मिता, पहचान व संघर्ष
को ही खारिज कर दिया है.
ऐसा नहीं है कि
एकलव्य को ‘दलित’ मानने और सिद्ध करनेवाले वे अकेले हैं.
हिंदी और अन्य सभी भारतीय भाषाओं में रचे गए कवित्त, साहित्य व नाटक
में उसकी पुनर्रचना दलित अथवा शूद्र के रूप में ही की गई है. आधुनिक
कन्नड़ रंगमंच के जनक माने जानेवाले टीपी कैलासम ने 1944 में एकलव्य की
कहानी पर अंग्रेजी में ‘परपज’ नाटक लिखा था, जो बाद में
कन्नड़ में ‘एकलव्य’ नाम से चर्चित हुआ. ‘परपज’ मराठी में भी अनुवादित व
मंचित होकर लोकप्रिय हुआ जिसका अनुवाद के. नारायण काले ने किया था. केवी पुटप्पा
(कुवेंपु) का ‘बेरळगे कोरळ’ (1947) भी एकलव्य के जीवन पर आधारित
है. यह भी कन्नड़ में है. इन सभी नाटकों में एकलव्य को ‘निम्न जाति’ और दलित मानते
हुए प्रस्तुत किया गया है.
इस सवाल के जवाब में अक्सर एक बात कही जाती है.
दलित मतलब वे सभी जो व्यवस्था द्वारा सताए गए हैं, दबे-कुचले हैं.
जिनका दमन हुआ व हो रहा है, जो दमित हैं, वे सब के सब दलित
हैं. भारत की बहुस्तरीय सामाजिक संरचना और वृहत्तर वर्गीय अवधारणा की
दृष्टि से निश्चित रूप से दलित शब्द के इस अर्थ से किसी की असहमति नहीं हो
सकती है. पर सभी जानते हैं कि भारत के वंचित और उत्पीड़ित समुदायों में से
‘हरिजन’, ‘अछूत’ व शूद्र कहे
जाने वाले जातियों ने अपने अस्मितावादी आंदोलन से इस शब्द को
स्वयं के लिए स्वीकृत और स्थापित कर लिया है. इसलिए अब
दलित से न स्त्रियों का बोध होता है, न अल्पसंख्यक और आदिवासी
समुदायों का. वैसे भी दलित बुद्धिजीवी न बाबा साहेब के जमाने में स्वयं को
आदिवासी मानते थे, न आज. स्पष्टतया एकलव्य जैसे आदिवासी
चरित्र को दलित की परिधि में नहीं लाया जा सकता.
निःसंदेह वह खांटी आदिवासी है.
राउत जैसे लोग जब यह कहते हैं कि वे एकलव्य के सिर्फ सेल्फ लर्निंग, संघर्ष, प्रकृति प्रेम
से अभिभूत हैं और इसी वजह से उन्होंने एकलव्य को पुनर्सृजित किया
है,
तो
उनकी मनुवादी चालाकियां नहीं छुप पातीं. मतलब, जब वे कहते हैं कि
एकलव्य का चरित्र जाति और समुदाय से ऊपर है. वह सिर्फ एक ‘इंसान’ है जो व्यवस्था
के खिलाफ संघर्ष करते हुए नए मूल्यों का प्रतिनिधित्व
करता है. गर्व से यह भी जोड़ते हैं कि एकलव्य के माध्यम से वे महाभारत जैसे
एपिक को ‘री-डिफाइंड’ कर रहे हैं, तो उनके नाटक का
एकलव्य अपने पहले ही दृश्य के पहले परिचयात्मक
संवाद में ‘मैं एक अछूत. ... मैं महाशूद्र एकलव्य’ कह कर उनकी असली
मंशा उजागर कर देता है.
यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उनका एकलव्य
जातिविहीन, अस्मिताविहीन ‘इंसान’ नहीं है. फिर वह
बार-बार और पूरे नाटक में खुद को तो शूद्र बोलता ही है, दूसरे सहयोगी पात्र भी
उसे शूद्र ही कहते रहते हैं. अजीब विरोधाभास है कि एक ओर उन्हें अस्मिताविहीन, जातिहीन एकलव्य
पसंद है तो दूसरी ओर एक आदिवासी चरित्र को शूद्र के तौर पर ‘री-डिफाइन’ कर रहे हैं. अगर
आपको एकलव्य का अस्मिताविहीन चरित्र इतना ही पसंद था
फिर उसे ‘अछूत’ और ‘शूद्र‘ क्यों सिद्ध कर रहे
हैं? उसे आदिवासी नहीं कहना चाहते थे तो अछूत, शूद्र क्यों बना दिया? क्या मजबूरी या
सोच है एक जातिविहीन आदिवासी को अछूत बनाने के पीछे? यह कैसी
पुनर्व्याख्या है?
‘मत्ते एकलव्य’ बहुभाषी नाटक है. संवाद मुख्यतया
हिंदी में, कहीं-कहीं संस्कृत और गीत कन्नड़ में
हैं. चूंकि कर्नाटक के दलित-आदिवासियों के
लोक तत्वों - गीत, संगीत, नृत्य - को लिया है तो
जाहिर है कि ये सब कन्नड़ में हैं. प्राचीनता बताने के लिए संस्कृत और
देशव्यापी लोकप्रियता के लिए हिंदी जरूरी थी. लेकिन नाटक में आदिवासी भाषा हो, एकलव्य और उसका
समुदाय आदिवासी भाषा बोले, वह भी जब मेटा प्रदर्शन में
शामिल डिंगरी नरेश यानी कि मुख्य अभिनेता और श्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड जीतने
वाला आदिवासी हो, लेखक-निर्देशक को जरूरी नहीं लगा.
कहानी, नाच, गान, संगीत, शैली सभी कुछ आदिवासी का लेंगे. लेकिन
उनकी भाषा नहीं लेंगे. उनकी आदिवासी अस्मिता से परहेज
करेंगे. क्यों? क्योंकि आदिवासी को बेचा जा सकता
है. जैसा कि अभी तक बव कारंत, केएम पणिक्कर, हबीब तनवीर, रतन थियम, भानु भारती जैसे
लोग करते रहे हैं. राउत इसी ‘आदिवासी हंट’ परंपरा को आगे बढ़ा रहे
हैं.
इस विमर्श में कन्नड़ के ही एम गोविंद पै का नाटक ‘हेब्बेरळु’ (1946) की चर्चा प्रासंगिक
है. ‘हेब्बेरळु’ में एकलव्य को भील आदिवासी
मानते हुए ‘आर्य-अनार्य’ संघर्ष की कथा
दृश्यांकित की है राष्ट्रकवि गोविंद पै ने. एकलव्य के
जीवन संघर्ष पर संभवतः यह अकेला नाटक है जो उसकी आदिवासी अस्मिता और
प्रतिरोध को ऐतिहासिक आर्य-अनार्य संघर्ष के परिप्रेक्ष्य
में देखता है. क्योंकि गोविंद पै इस नाटक में जो टिप्पणी करते हैं वह
बेहद महत्वपूर्ण है और राजनीतिक भी. उन्होंने लिखा है - ‘नोडलिदे नोडलिदे
जलदिमीनिन काल’ (पानी में मछली के पाद चिन्ह देखने का
समय आनेवाला है, पृ, 50). अर्थात् वे
संकेत करते हैं कि भविष्य में भी अनार्य समाज का
मुख्यधारा में आना उतना ही मुश्किल है, जितना पानी में मछली के पांवों के निशान
पहचानना.
आज का आदिवासी भारत इस राजनीतिक टिप्पणी को सटीकता के
साथ व्यक्त करता है. जल, जंगल, जमीन पर अधिकार व अपनी आदिवासी अस्मिता
के लिए भारत की पुलिस-सेना से वह मुठभेड़ में है. वह अपने धार्मिक
रूपांतरण, सांस्कृतिक कायांतरण और आंतरिक औपनिवेशिक लूट व दमन के खिलाफ निरंतर
संघर्षरत है. मुख्यधारा की अवधारणा के खिलाफ है वह. ऐसे में उससे जुड़े
मिथकीय चरित्र एकलव्य को जाति में समेट लेना, उसकी आदिवासी अस्मिता को
नकारना असलियत में उसके संघर्ष को कमजोर करना है. आदिवासियों को मुख्यधारा में
जबरन घसीट लेने की यह कोशिश उस दमन और अन्याय का समर्थन है, जिसे हमारी
सरकारें ‘संस्कृतिकरण’ व ‘सलवा जुडूम’ कहती हैं.
अश्विनी कुमार पंकज
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