Tuesday, 2 April 2013

हालाते जिस्म, सूरते जाँ और भी ख़राब


हालाते जिस्म, सूरते जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब
दुष्यंत कुमार

1 comment:

  1. चट्टानों पर खडा हुआ तो छाप रह गई पैरों की/ सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा- दुष्यन्त कुमार
    कह दिया यूं ही बुरा, सोचे बिना, समझे बिना
    ताक पर मत रख मुझे, जांचे बिना,परखे बिना

    -दीक्षित दनकौरी

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