Sunday, 30 December 2012

ये रेप तो वर्षों से चला आ रहा है- अरुंधति राय

चर्चित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति राय ने दिल्ली रेप कांड को लेकर मचे बवाल के हवाले से बहुत वाजिब सवाल उठाया है कि-
''
ये रेप तो वर्षों से चला आ रहा है.ये मानसिकता में समाया हुआ है. गुजरात में मुसलमानों के साथ हुआ, कश्मीर में सुरक्षा बल करते हैं बलात्कार, मणिपुर में भी ऐसा होता है लेकिन तब तो कोई आवाज़ नहीं उठाता है. खैरलांजी में दलित महिला और उसकी बेटी का रेप कर के उन्हें जला दिया गया था. तब तो ऐसी आवाज़ नहीं उठी थी.

एक सामंती मानसिकता है लोगों की जो तभी आवाज़ उठाती है जब बड़ी जाति के, प्रभुत्व वाले लोगों के साथ दिल्ली में कुछ होता है.
आवाज़ उठनी चाहिए. जो हुआ है दिल्ली में उसके लिए हल्ला तो मचना चाहिए लेकिन ये हल्ला सिर्फ मिडिल क्लास लोगों को बचाने के लिए नहीं होना चाहिए.

छत्तीसगढ़ में आदिवासी महिला सोनी सोरी के साथ भी कुछ हुआ था आपको याद होगा तो. उनके जननांगो में पत्थर डाले गए थे.पुलिस ने ऐसा किया लेकिन तब तो किसी ने आवाज़ नहीं उठाई थी. उस पुलिस अधिकारी को तो साहस का अवार्ड मिला.
कश्मीर में जब सुरक्षा बल गरीब कश्मीरियों का रेप करते हैं तब सुरक्षा बलों के खिलाफ़ कोई फांसी की मांग नहीं करता.
जब कोई ऊंची जाति का आदमी दलित का रेप करता है तब तो कोई ऐसी मांग नहीं करता.

एक सामंती मानसिकता है हम लोगों के अंदर. बलात्कार एक भयंकर अपराध है लेकिन लोग क्या करते हैं. जिस लड़की का रेप होता है उसे कोई स्वीकार क्यों नहीं करता. कैसे समाज में रहते हैं हम. कई मामलों में जिसका बलात्कार होता है उसी को परिवार के लोग घर से निकाल देते हैं.

विरोध होना चाहिए लेकिन चुन चुन के विरोध नहीं होना चाहिए. हर औरत के रेप का विरोध होना चाहिए. ये दोहरी मानसिकता है कि आप दिल्ली के रेप के लिए आवाज़ उठाएंगे लेकिन मणिपुर की औरतों के लिए, कश्मीर की औरतों के लिए और खैरलांजी की दलितों के लिए आप आवाज़ क्यों नहीं उठाते हैं.

रेप का विरोध कीजिए इस आधार पर नहीं कि वो दिल्ली में हुआ है या मणिपुर में या किसी और जगह. मैं बस यही कह सकती हूं...''

Saturday, 29 December 2012

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है .. कहाँ है .. कहाँ है ?


जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां जिन्दगी के
कहाँ हैं, कहाँ हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के?

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

ये पुरपेंच गलियां, ये बेख़ाब बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

तअफ्फ़ुन से पुर नीमरोशन ये गलियां
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द किलयां
ये बिकती हुई खोकली रंग रिलयां

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

वो उजाले दरीचों में पायल की छन-छन
तनफ़्फ़ुस की उलझन पे तबले की धन-धन
ये बेरूह कमरों में खांसी की धन-धन

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

ये गूंजे हुए क़ह-क़हे रास्तों पर
ये चारों तरफ़ भीड़ सी खिड़िकयों पर
ये आवाज़ें खींचते हुए आंचलों पर

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

ये फूलों के गजरे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख़ फ़िक़रे
ये ढलके बदन और ये मदक़ूक़ चेहरे

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

ये भूकी निगाहें हसीनों की जानिब
ये बढ़ते हुए हाथ सीनों की जानिब
लपकते हुए पांव ज़ीनों की जानिब

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

यहां पीर भी आ चुके हैं जवां भी
तनूमन्द बेटे भी, अब्बा मियां भी
ये बीवी भी है और बहन भी है, मां भी

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी
यशोदा की हमजिन्स राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत ज़ुलैख़ा की बेटी

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

ज़रा मुल्क के राहबरों को बुलाओ
ये कूचे ये गलियां ये मन्ज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिंद पे उन को लाओ

जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहाँ है ... कहाँ है ... कहाँ है ???

-
साहिर लुधियानवी
सोनी सोरी,आरती माझी,हिड़मे,सीते,आइती और इन जैसी हजारों महिलाऔ  को न्याय मिलना चाहिए ये अभी जिन्दा हैं |

बड़ी होती बेटी / मदन कश्यप

अभी पिछले फागुन में
उसकी आँखों में कोई रंग न था
पिछले सावन में
उसके गीतों में करुणा न थी
अचानक बड़ी हो गई है बेटी
सेमल के पेड़ की तरह
हहा कर बड़ी हो गई है
देखते ही देखते।

जब वह जन्मी थी
तब कितना पानी होता था
कुएँ-तालाब में
नदी तो हरदम लबालब भरी रहती थी
भादों में कैसी झड़ी लगती थी
वैसी ही एक रात में पैदा हुई थी
ऐसी झपासी थी कि एक पल के लिए भी
लड़ी नहीं टूट रही थी

अब बड़ी हुई बेटी
तब तक सूख चुके हैं सारे तालाब
गहरे तल में चला गया है कुएँ का पानी
नदी हो गई है बेगानी
काँस और सरकंडों के जंगल में
कहीं-कहीं बहती दिखती हैं पतली पतली धाराएँ ।

पलकें झुका कर
सपनों को छोटा करो मेरी बेटी
नींद को छोटा करो
देर से सूतो
पर देर तक न सूतो
होठों से बाहर न आये हँसी
आँखों तक पहुंच न पाये कोई ख़ुशी
कलेजे में दबा रहे दुःख
भूख और विचारों को मारना सीखो
अपने को अपने ही भीतर गाड़ना सीखो

कोमल-कोमल शब्दों में
जारी होती रहीं क्रूर हिदायतें
फिर भी बड़ी हो गई बेटी
बड़े हो गये उसके सपने!

2

बड़ी हो रही है बेटी
बड़ा हो रहा है उसका एकांत

वह चाहती है अब भी
चिड़ियों से बतियाना
फूलों से उलझना
पेड़ों से पीठ टिका कर सुस्ताना
पर सब कुछ बदल चुका है मानो

कम होने लगी है
चिड़ियों के कलरव की मिठास
चुभने लगे हैं
फूलों के तेज़ रंग
डराने लगी हैं
दरख़्तों की काली छायाएँ





बड़ी हो रही है बेटी
बड़े हो रहे हैं भेड़िए
बड़े हो रहे है सियार

माँ की करुणा के भीतर
फूट रही है बेचैनी
पिता की चट्टानी छाती में
दिखने लगे हैं दरकने के निशान
बड़ी हो रही है बेटी!

3

बाबा बाबा
मुझे मकई के झौंरे की तरह
मरुए में लटका दो

बाबा बाबा
मुझे लाल चावल की तरह
कोठी में लुका दो

बाबा बाबा
मुझे माई के ढोलने की तरह
कठही संदूक में छुपा दो

मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया
चावल को कन और भूसी
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा
तुझे कौन बचाएगा मेरी बेटी!