Monday, 18 February 2013

आनेवाली पीढ़ियों से

(1)
सचमुच, मैं एक अँधेरे वक़्त में जीता हूँ !

सीधा शब्द निर्बोध हैं। बिना शिकन पडा माथा
लापरवाही का निशान। हँसने वाले को
ख़ौफ़नाक ख़बर
अभी तक बस मिली नहीं है।

कैसा है ये वक़्त, कि
पेड़ों की बातें करना लगभग ज़ुर्म है
क्योंकि उसमें कितनी ही दरिंदगियों पर ख़ामोशी शामिल है !
बेफ़िक्र सड़क के उस पार जानेवाला
अपने दोस्तों की पहुँच से बाहर तो नहीं चला गया
जो मुसीबतज़दा हैं?

यह सच है : कमा लेता हूँ अपनी रोटी अभी तक
पर यकीन मानो : यह सिर्फ़ संयोग है। चाहे
कुछ भी करूँ, मेरा हक़ नहीं बनता कि छक कर पेट भरूँ।
संयोग से बच गया हूँ। (किस्मत बिगड़े,
तो कहीं का न रहूँ)

मुझसे कहा जाता है : तुम खाओ-पीओ ! ख़ुश रहो कि
ये तुम्हें नसीब हैं।
पर मैं कैसे खाऊँ, कैसे पीऊँ, जबकि
अपना हर कौर किसी भूखे से छीनता हूँ, और
मेरे पानी के गिलास के लिए कोई प्यासा तड़प रहा हो ?
फिर भी मैं खाता हूँ और पीता हूँ।

चाव से मैं ज्ञानी बना होता
पुरानी पोथियों में लिखा है, ज्ञानी क्या होता है :
दुनिया के झगड़े से अलग रहना और अपना थोड़ा सा वक़्त
बिना डर के गुजार लेना
हिंसा के बिना भी निभा लेना
बुराई का जवाब भलाई से देना
अपने अरमान पूरा न करना, बल्कि उन्हें भूल जाना
ये समझे जाते ज्ञानी के तौर-तरीके।
यह सब मुझसे नहीं होता :
सचमुच, मैं एक अँधेरे वक़्त में जीता हूँ!

(2)
शहरों में मैं आया अराजकता के दौर में
जब वहाँ भूख का राज था।
इंसानों के बीच मैं आया बगावत के दौर में
और उनके गुस्से में शरीक हुआ।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

जंगों के बीच मुझे रोटी नसीब हुई
क़ातिलों के बीच मुझे डालने पड़े बिस्तर
प्यार के साथ पेश आया मैं लापरवाही से
और क़ुदरत को देखा तो बिना सब्र के।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

मेरे वक़्त में 'सड़कें' दलदल तक जाती थीं
जुबान ने मेरा भेद खोला जल्लादों के सामने
शायद ही कुछ कर पाया मैं। पर हुक्मरानों को
राहत मिलती है मेरे बिना, ये उम्मीद तो थी।
ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

ताक़त नाकाफ़ी थी। मंज़िल
दूर कहीं दूर थी।
साफ़-साफ़ दिखती थी, हालाँकि शायद ही
मेरी पहुँच के अंदर थी। ऐसे ही बीता मेरा वक़्त
जो मुझे इस धरती पर मिला हुआ था।

(3)
तुम, कभी तुम जब उस ज्वार से उबरोगे
जिसमें हम डूब गए
याद करना
जब तुम हमारी कमज़ोरियों की बात करो
उस अँधेरे वक़्त की भी
जिससे हम बचे रहे।

हमें तो गुज़रना पडा, जूतों की तुलना में कहीं ज़्यादा
मुल्क बदलते हुए
वर्गों के बीच युद्धों से होकर, लाचार
जब वहां सिर्फ़ अन्याय हुआ करता था, पर गुस्सा नहीं।
हालाँकि हमें पता तो है :
कमीनेपन से नफ़रत से भी
चेहरा तन जाता है।
नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ गुस्से से भी
आवाज़ भर्रा सी जाती है। हाय रे हम
हम, जो ज़मीन तैयार करना चाहते थे बंधुत्व के लिए
बंधु तो हम नहीं बन सके।

पर तुम, जब वो वक़्त आए
कि इंसान इंसान का मददगार हो
याद करना हमें
कुछ समझदारी के साथ।

-
बेर्टोल्ट ब्रेख्ट

1 comment:

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