Friday, 9 November 2012

कितनी कारगर होगी इरोम की भूख हड़ताल



40 वर्षीय इरोम शर्मिला पिछले बारह सालों से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर है.  2 नवंबर 2000  को इम्फाल की घाटी मालोम में असम रायफल्स के जवानों ने बस स्टैण्ड पर 10 लोगों को गोलियों से भून डाला था, जिसमें राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित एक महिला की मौत भी हो गई थी.

इस घटना ने इरोम को सोचने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने इसका प्रतिरोध करने की ठानी और उन्होंने मांग की कि सरकार राज्य में लागू दमनकारी कानून एएफएसपीए को समाप्त करे. इस कानून के जरिए सेना के जवान कभी भी लूट, बलात्कार और हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं. यह सब इसलिए होता है कि इस कानून के तहत सेना के जवान किसी भी व्यक्ति को बिना किसी वारंट के पकड़ सकते हैं, पूछताछ या हत्या कर सकते हैं.

इसलिए इरोम ने कसम खाई कि जब तक इस दमनकारी कानून को हटाया नहीं जायेगा तब तक वो अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर रहेंगी. तब से लेकर आज 12 वर्ष बीतने के बाद भी इरोम की जिन्दगी का ज्यादातर समय या तो अस्पताल में गुजरा है या फिर जेल में, क्योंकि इरोम का भूख हड़ताल करना भी हमारे देश के रहनुमाओं को स्वीकार नहीं. उन्हें आत्महत्या करने के जुर्म में हिरासत में ले लिया गया और कोशिश की गयी कि इस भूख हड़ताल को तोड़ दिया जाये. लेकिन इरोम स्वीकार नहीं. इसलिए नाक में नली द्वारा भोजन और जरूरी आहार देकर उन्हें जिन्दा रखा जा रहा है.

इरोम का आन्दोलन न तो पहला है न ही आखिरी. मणिपुर की जनता ने पिछले 63 वर्षों में सैकड़ों बार आन्दोलन किया लेकिन फिर भी इसका कोई असर नही हुआ. आज भी वहां लोकतंत्र की बहाली नहीं हो पाई है. 63 वर्षों में वहां लगभग 20,000 लोगों की जान जा चुकी है.
सोचने वाली बात यह है कि भुख हड़ताल के बारह वर्षों बाद भी क्या इरोम को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करने की जरूरत है या नहीं.

निश्चय ही बारह वर्षों के अनिशिचितकालीन भूख हड़ताल से कुछ सबक लेने की जरूरत है. इरोम मानवाधिकार कार्यकर्ता है, साथ ही एक पत्रकार और एक कवियित्री भी. वो किसी भी राजनीतिक पार्टी या संगठन से जुड़ी नहीं है. वो आज भी दुनिया के सबसे बड़े भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास करती है कि मणिपुर जनता को अवश्य न्याय मिलेगा और वहां अमन कायम होगा.

लेकिन आज का दौर वैश्वीकरण का दौर है. 1991 में लागू की गयी नई आर्थिक नीतियों के बाद भारत में अमीर-गरीब, शहर-गाँव, तथा विकसित और अविकसित राज्यों की बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है. पूर्वोत्तर राज्य भी शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार और ऐसी कई बुनियादी जरूरतों से वंचित हो रहे हैं. जनता आज गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई से पीड़ित है. किसी प्रकार की राहत देने की बजाय सरकार दमन और उत्पीड़न का सहारा लेती है. लेकिन जनता अपने हक हासिल करने के लिए अनेक रास्तों से संघर्षरत है. इरोम इसी संघर्ष का नाम है.

सच बात तो यह है कि आजादी के बाद से ही हमारे देश का विकास काफी असंतुलित रहा है. लेकिन नवउदारवादी दौर से पहले जब भी जनता ने आवाज उठायी है. राज्य सरकारें उनकी कुछएक मांगे मांग लेती है, क्योंकि वो जानती है कि जिस भीड़ ने अंग्रेजो जैसे शासकों को इकट्ठा होकर भगा दिया है, वो हमें भी बाहर का रास्ता दिखा सकती है. लेकिन एएफएसपीए हटाने की मांग उस दौर में भी नहीं मानी गयी.

1991 के बाद लागू होने वाली नई आर्थिक नीतियों के कारण भारतीय शासकों की कार्य प्रणाली में भारी बदलाव आया. भारतीय शासकों ने समाजवादी और जन-कल्याणकारी राज्य का मुखौटा उतार दिया और देशी-विदेशी पूंजी के साथ गठजोड़ के बाद वे नई तरह की नीतिया अपना रहे हैं, जो बिल्कुल ही आम जनता के हित में नहीं है. इसी के साथ-साथ सरकारी तंत्र अधिक निरंकुश होता जा रहा है. ऐसे में इरोम के शांतिपूर्ण विरोध का क्या नतीजा होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है.

पिछले दो दशकों में अनेक व्यक्तियों और संगठनों ने मणिपुर में सैन्यकरण का विरोध किया, लेकिन किसी भी संघर्ष में इतनी धार नहीं थी कि वह अफ्सपा को बदल सके. बल्कि ऐसे आन्दोलन एक अनुष्ठान के सिवा कुछ नहीं थे.

1990 के बाद मजदूरों, किसानों, छात्रों, आदिवासियों के आंदोलनों की बाढ़ सी आ गयी है. भारतीय शासकों ने इन आंदोलनों को कुचलने की भरपूर कोशिश भी की. देश भर में चल रहे इन आंदोलनों का तरीका अंग्रेजी शासकों से भी बर्बरतापूर्ण है.

उग्रवाद के नाम पर मणिपुर को ही नहीं बल्कि देश के दूसरे राज्यों जैसे- उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड को अघोषित सैनिक शासन में बदल दिया गया है. आर्थिक सुधारों को जारी रखने के लिए ऐसा करना उनके लिए जरूरी है तभी तो शासकवर्ग संसाधनों को कौड़ी के भाव देशी-विदेशी कम्पनियों के हवाले कर सकते हैं.

आर्थिक उपनिवेश के इस दौर में शांतिपूर्ण, वर्षों तक चलने वाले व्यक्तिगत भूख हड़ताल से शासकों पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ने वाला है. बदलाव किसी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता बल्कि उसके लिए देशव्यापी संगठित आन्दोलन की आवश्यकता होती है. हम इरोम के जज्बे और दृढ़ इच्छा शक्ति को सलाम करते हैं लेकिन इतिहास गवाह है कि चंद वीर नायक इतिहास नहीं बनाते. कोटि-कोटि जनता के सामूहिक प्रयास और प्रतिरोध ही इतिहास का रुख मोड़ने में कायम हो सकते हैं.
                                                     -आरिफा

1 comment:

  1. manavta ko kuchalne ki koshish hoti rahi hai jyadatar shashkon dwara............

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